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आप निःसंकोच होकर उन्हें अपनी कन्यादान करें । '
( श्लोक १६८ - १७० ) उनकी बातें सुनकर राजा कुम्भ बोले, 'वे सब क्या धृष्ट दुराचारी और मूर्ख है और मृत्यु की आकांक्षा कर रहे हैं ? देव तो क्या स्वयं शक भी त्रिलोक की सारभूता मेरे कन्यारत्न के योग्य नहीं हैं । ईर्ष्या परायण तुम्हारे राजाओं की इच्छा पूर्ण होने वाली नहीं है | अतः नीच कुल जात दूतगण, जाओ मेरे राज्य का परित्याग करो ।' (श्लोक १७१-१७३) राजा कुम्भ द्वारा इस प्रकार अपमानित होकर छहों दूत शीघ्र अपने-अपने राज्य को लौट गये और क्रोधरूपी अग्नि को उद्दीप्त करने वाले राजा कुम्भ के ये वाक्य अपने-अपने प्रभु को सुनाए । छहों राजा ने समान रूपसे अपमानित होने के कारण परस्पर विचार विनिमय कर एक साथ मिथिला पर आक्रमण करने की योजना बनायी । शक्ति में दिक्पर्वत से वे छहों राजा पृथ्वी को सैन्य द्वारा आवृत कर युद्ध यात्रा करते हुए मिथिला में उपस्थित हुए । आगमन-निर्गमन का पथ अवरुद्ध कर सर्प जैसे चन्दन वृक्ष को आवेष्टित कर लेता है उसी प्रकार उन लोगों ने उस नगरी को चारों ओर से घेर लिया । ( श्लोक १७४ - १७७) घेर लेने के फलस्वरूप नागरिकों की दुर्दशा से जब राजा कुम्भ चिन्तित हुए तब मल्ली एक दिन उनके पास आकर बोली, 'पिताजी आप क्यों चिन्तित हैं ?' राजा कुम्भ ने अपनी चिन्ता का कारण बताया । तब मल्ली बोली, 'आप गुप्तचरों द्वारा प्रत्येक राजा को अलग-अलग कहला भेजिए " मैं आपको मल्ली देना चाहता हूं । तदुपरांत सन्ध्या समय उन्हें एक-एक कर गुप्त रूप से जहाँ मेरी प्रतिकृति रखी हुई है अलग-अलग छह कक्षों में ठहरा दें । राजा कुम्भ ने वैसा ही किया, छहों राजाओं ने वातायन की जाली मल्ली की उस प्रतिकृति को देखा । ( श्लोक १७८ - १८२ )
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इस प्रतिकृति को साक्षात् मल्ली समझकर वे मन ही मन सोचने लगे इस मृगाक्षी को तो पुण्योदय से ही मैंने प्राप्त किया है । मल्ली ने उस प्रतिकृति के मस्तक का स्वर्ण कमलरूपी ढक्कन पर्दे की आड़ से खोल दिया । खोलते ही पूर्व डाले अन्न की सड़ी दुर्गन्ध जिसे कि नाक सहन कर सके फैला गयी । वही गन्ध दरवाजे की जालियों से
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