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[१६५ समस्त तपस्या ही व्यर्थ है। क्या आप यह श्रुतिवाक्य नहीं जानते, अपुत्रक की गति नहीं होती?' जमदग्नि विचार में पड़ गएसोचने लगे, ठीक ही तो है। बिना पत्नी और बिना पूत्र के मेरी तो समस्त तपस्या ही जल में घुल गयी है। (श्लोक ३४--३५)
उन्हें चिन्तित देखकर धन्वन्तरी सोचने लगे कि वे तापसों द्वारा भ्रमित हो गए हैं। ऐसा सोचकर वे अर्हत् भक्त हो गए । प्रमाण द्वारा भला किसे बोध नहीं होता ? तदुपरान्त वे दोनों देव अदृश्य हो गए और जमदग्नि नेमिक-कोष्ठ नगर में गए। वहाँ राजा जितशत्र के अनेक कन्याएँ थीं। उनमें से किसी को गौरी की तरह प्राप्त करने वे राजसभा में गए । उन्हें देखकर राजा उठ खड़े हुए और वन्दना कर करबद्ध होकर बोले, 'महाभाग, कहिए आपका शुभागमन यहां क्यों हुआ है ? मैं आपके लिए क्या कर सकता हूं ?'
(श्लोक ३६-३९) जमदग्नि बोले, 'राजन्, मैं आपसे आपकी एक कन्या को माँगने आया हूं।' राजा बोले, 'मेरे सौ कन्याएँ हैं। उनमें जो आपको वरण करना चाहे उसे आप ग्रहण करें।' तब जमदग्नि अन्त:पुर गए और राजकन्याओं को सम्बोधित कर बोले,–'तुममें से कोई मुझे वरण करो।' ऐसा सुनकर वे थूः थः करने लगी और बोलो,-'पके हुए केश, जटाधारी शीर्ण और भिक्षाजीवि तुम्हें ऐसा कहने में लज्जा नहीं आती ?'
(श्लोक ४०-४२) जमदग्नि ने तब क्रुद्ध होकर धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाते समय धनुष को जैसे झुकाया जाता है उसी प्रकार उन्हें कुबड़ी बना दिया। उस समय राजा की सबसे छोटी कन्या प्रांगण में रखी बाल के ढेर पर खेल रही थी। उसे देखकर ऋषि ने, 'रेणुका,' कहकर पुकारा और बिजोरा नींबू दिखाकर कहा, 'यह लोगी?' उसने हाथ बढ़ाया, (विवाह में जैसे पाणिग्रहण किया जाता है) ऋषि ने उसे ग्रहण कर दरिद्र जैसे अर्थ को छाती से चिपका लेता है उसी प्रकार उसे छाती से चिपका लिया। तब राजा ने गौ आदि देकर विधिवत् रेणुका को ऋषि को दान कर दिया। सन्तुष्ट होकर ऋषि ने अपनी पत्नी की निनानवे बहिनों को तपोबल से पूनः स्वस्थ कर दिया। मूर्ख ही ऐसी तपस्या करते हैं । तदुपरान्त ऋषि उसे आश्रम में ले गए और यत्नपूर्वक उसका