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समुद्र के तट-सी दीक्षा ग्रहण कर ली । निष्ठा सहित व्रत पालन कर और बीस स्थानक एवं अर्हतों की आराधना कर उन्होंने तीर्थङ्कर नामक गोत्र कर्म उपार्जन किया । कालक्रम से सम्यक् दृष्टि वे ध्यान में निविष्ट होकर मृत्यु वरण कर सर्वार्थसिद्धि विमान में देव रूप में उत्पन्न हुए । ( श्लोक ११-१३
जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में हस्तिनापुर नामक एक नगर था । उस नगर में मन्दिरों पर श्वेत पताकाएँ वायु से आन्दोलित होकर सर्वदा नृत्य करती थीं । देखकर लगता मानो स्वयं धर्म ही आनन्दमना होकर नृत्य कर रहा है। यहां के गृह प्रांगण रत्नजड़ित होने से मद्यासक्त हाथी उसमें अपना प्रतिबिम्ब देखकर उसे अन्य हाथी समझ स्व- दन्तों से आघात करते । आकाश जैसे ग्रह नक्षत्रों से सुशोभित होता है उसी प्रकार राजा का प्रासाद - तोरण, प्रजाजनों गृहद्वार और अन्यत्र सर्वत्र अर्हत् प्रतिमाओं से शोभित होते थे ।
( श्लोक १४ - १८ )
अलका में जैसे कुबेर है उसी भांति नवीन सूर्य से प्रभावशाली सूर इस नगरी के राजा थे । उनके हृदय में द्वितीय आत्मा की भांति धर्म निवास करता था । काम और अर्थ तो शरीर की भांति बाहर अवस्थित रहते । अत: हाथों के अङ्गदादि की भांति अलङ्कार रूप में ही वे शोभित होते थे । वे बिना किसी पर क्रुद्ध हुए इस पृथ्वी पर शासन करते थे । कठोर नहीं होने पर भी चन्द्र सबको आलोकित करता है । ( श्लोक १९-२२) हरि की श्री की भांति उनकी पत्नी का नाम श्री था । वह जैसी रूप लावण्य और शील की प्रतिरूप थी वैसी ही अनिन्द्य चारित्र की अधिकारिणी थी । वह जैसी सुन्दर थी वैसा ही उसकी वाणी से अमृत झरता था । उसे देखकर अमृतसरिता या चन्द्रलोक से आगत देवी का भ्रम होता था उसकी देह जैसी अनिन्द्य थी वैसे ही वह धीरे-धीरे बोलती थी । राजहंस के हंसी की तरह वह राजा सूर की श्री थी । स्वर्ग में देवियों सहित देव जैसे सुख भोग करते हैं वैसे ही उसके साथ अव्याहत सांसारिक सुख भोग करते थे । ( श्लोक २३-२६)
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सिंहवाह का जीव सर्वार्थसिद्धि विमान की तैंतीस सागरोपम की आयु पूर्ण कर वहां से च्युत होकर श्रावण कृष्णा नवमी के दिन