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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् श्री कुन्थुनाथचरितम्
षष्ठ पर्व
प्रथम सर्ग अज्ञानान्धकार रूपी प्रस्तर को चूर्ण करने में नदी प्रवाह रूप भगवान् कुन्थुनाथ की वाणी जययुक्त हो। भव समुद्र को मन्थन करने वाले मन्थन पर्वत की तरह त्रिलोकनाथ कुन्थु का जीवनचरित अब मैं वर्णन कर रहा है।
(श्लोक १-२) इसी जम्बूद्वीप के पूर्व विदेह में स्वर्ग से भी अधिक सुन्दर आवर्त नामक विजय में खड़गी नामक नगर में समस्त गुणों के आकर न्यायपरायणों में अग्रगण्य सिंहवाह नामक एक राजा थे। वे नीति के मानो पर्वत-से, पाप-विनाशन के खड्ग रूप, धर्म के आश्रय-स्थल और बुद्धि के निवास रूप थे। उनके मन और बुद्धि के तल को स्पर्श करना, जो विचक्षण थे उनके लिए भी, सहज नहीं था। उनका वैभव और सैन्यदल शक्र के समान था। उनका तेज हरि के अनुरूप था। समुद्र-से शक्तिशाली वे अपनी मर्यादा का उल्लंघन कभी नहीं करते थे। साथ ही पृथ्वी को भी उसकी मर्यादा का कभी उल्लंघन नहीं करने देते थे। उनकी प्रत्यंचा का निर्घोष विजयश्री को आकृष्ट करने में, शत्रसैन्य को ध्वंस करने में और पृथ्वी की रक्षा करने में मन्त्र रूप था। वे न्याय के लिए ही पृथ्वी पर शासन करते थे, अर्थ के लिए नहीं। जो धर्मानुरागी होते हैं वे अर्थ को तो उसके परिणाम रूप में ही प्राप्त करते हैं। श्रमण जैसे आसक्तिरहित होकर आहार ग्रहण करते हैं उसी प्रकार तत्त्ववेत्ताओं में अग्रणी वे आसक्तिहीन होकर सांसारिक सुखों का भोग करते थे। इसी भांति कुछ काल व्यतीत हुआ।
(श्लोक ३-१०) एक दिन उन्होंने पूर्ण विरक्त होकर आचार्य संवर से संसार