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१०६] किया। छत्ररत्न ने भी बारह योजन तक विस्तृत होकर चर्मरत्न को आच्छादित कर डाला। वातायन पर दीप रखने की भाँति अन्धकार दूर करने के लिए नरश्रेष्ठ शान्तिनाथ ने छत्ररत्न की हथेली पर मणिरत्न रखा। वहाँ सुबह बोया धान दुपहर में पक जाता । अतः सैनिकों ने उन्हें ही खाना प्रारम्भ कर दिया। गाथापति रत्न में ऐसी शक्ति होती है। चक्रवर्ती शान्तिनाथ ने इस प्रकार समुद्र यात्री वणिक की तरह उसी महा समुद्र में सात दिन व्यतीत किए।
(श्लोक २१४-२२१) इस पर चक्ररत्न के अधिष्ठायक यक्ष ऋद्ध हो गए। वे हाथ में तलवार लेकर मेघकुमार देवों के पास जाकर बोले-'यह क्या कर रहे हो तुम लोग ? क्या तुम्हें मतिभ्रम हुआ है कि तुमने अपनी शक्ति और अन्य की शक्ति का परिमाप नहीं किया ? एक तरफ है आकाश को छूता स्वर्ण शिखर मेरु और दूसरी और है मिट्टी और बालू से बनी जंघा ऊँची बल्मीक । एक ओर है समस्त पृथ्वी को आलोक-दानकारी सूर्य और दूसरी ओर है टिमटिमाता क्षुद्र खद्योत । एक ओर है महाशक्तिशाली गरुड़ और अन्य ओर है नगण्य नाग । एक ओर है पृथ्वी को धारण करने वाला नागराज और दूसरी ओर है विषहीन निर्जीव सर्प । एक ओर है स्वम्भूरमण समुद्र और दूसरी ओर है गृहांगण की क्रीड़ा वापी। एक ओर है त्रिजगत् पूजित चक्री और तीर्थंकर और अन्य ओर है नगण्य म्लेच्छ जिनपर जयलाभ करने हम यहाँ आए हैं । अतः तुम लोग जाओ, इस स्थान का परित्याग करो नहीं तो शान्तिनाथ की आज्ञा वहन करने वाले हम तुम्हारे इस अविनय को सहन नहीं करेंगे । यह याद रखो।'
(श्लोक २२२-२२८) यक्ष देवों के इस प्रकार भर्त्सना करने पर मेघकुमार देव म्लेच्छों के पास आकर उन्हें समझाते हुए बोले –'तुमलोग शान्तिनाथ की शरण ग्रहण करो। वे ही तुम्हारे शरण्य हैं।' यह सुनकर म्लेच्छगण हाय-हाय कर मदविहीन हाथी की तरह शान्त हो गए ! फिर किरातगण नाना वाहन, अलङ्कार, मूल्यवान वस्त्र, स्वर्ण और रौप्य लिए शान्तिनाथ के पास गए और धरती पर लोटपोट होकर उनकी वश्यता स्वीकार करते हए बोले
(श्लोक २२९-२३२)