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कर जाएँ या ऊँचे पहाड़ों से कूद पड़ें ? या हम विष पान करें या गले में फांसी लगाकर ऊँची वृक्ष शाखाओं पर लटक जाएँ या पुराने कपड़े को फाड़ने की तरह अपने पेट को फाड़ दें या दांतों से अपनी जीभ को कद्दू की तरह कतर दें ? जिस तरह भी हो अब तो मृत्यु ही हमारा शरण-स्थल है । पराजय के पश्चात् कौन स्वाभिमानी व्यक्ति बचना चाहता है ? शत्रु को पराजित करने का यदि कोई उपाय हो सके तो हम अपने कुलदेव मेघकुमारों का आह्वान कर पूछें । जिनका सब कुछ लुट गया है, शत्रुओं द्वारा जिनका पौरुष लांछित हो चुका है, उनके तो कुलदेव ही एकमात्र आश्रय हैं । ( श्लोक १९७ - २०६)
ऐसा विचार कर चक्री के प्रताप से दग्ध होकर वे मानो सिन्धु नदी में डूबने जा रहे हैं इस भांति सिन्धु के तट पर पहुंचे । सर्वस्व खो देने वाले जुआड़ियों की तरह वे नग्न और दुःखार्त होकर सिन्धु के सैकत पर सीधे लौट गए । कुल देवताओं की कृपा प्राप्त करने के लिए वे तीन दिन तक उपवास कर वहीं रहे । कारण देवताओं पर भक्ति से ही विजय प्राप्त होती है । तीन दिन के पश्चात् मेघकुमार देव वहां आए और आकाश में स्थित रहकर बोले - 'वत्सगण, दुःखित मत होओ। तुम्हें क्या कष्ट है हमें बताओ ।' तब वे बोले – 'कोई चक्रवर्ती हमारी हत्या करने आया है | उसके भय से हम काक पक्षी की तरह यहाँ भाग आए हैं । हे देवगण, आप हमारी रक्षा कीजिए, आप लोग ही हमारे एक मात्र शरण्य हैं । जब कोई किंकर्तव्यविमूढ़ व विपन्न हो जाता है तब इष्टदेव ही उनके आश्रय होते हैं ।' ( श्लोक २०७ - २९२)
करो । हम तुम्हारे ( श्लोक २१३)
तब पृथ्वी को समुद्र में बदल डालने की तरह मेघकुमार देव शान्तिनाथ की सेना पर तीक्ष्ण शर रूपी वारि वर्षण करने लगे । अपनी छावनी को जल में डूबते देख चक्री ने चर्मरत्न को अपने हाथों से स्पर्श किया। मुहूर्त्त भर में चर्मरत्न बारह योजन तक फैल गया और समुद्र फेन की तरह जल पर तेरने लगा । शान्तिनाथ के आदेश से समस्त सैन्य लंगर डाली नौका की तरह उस पर चढ़ गई । तदुपरान्त उन्होंने चर्मरत्न की तरह छत्ररत्न को स्पर्श
मेघकुमार देव बोले- 'दुःख परित्याग शत्रु को जल में डुबा कर मार डालेंगे ।'