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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम्
श्री शान्तिनाथचरितम्
पंचम पर्व
प्रथम सर्ग
मैं उस शान्तिनाथ को प्रणाम करता हूं जिनका समस्त कर्ममल क्षय हो गया है एवं जो कि पंचम चक्रवर्ती और सोलहवें तीर्थंकर है । ( श्लोक १ ) मैं उनके जीवनचरित का वर्णन करूँगा जो कि परम पवित्र और अज्ञानान्धकार को दूर करने में सूर्यरूप हैं । ( श्लोक २ ) चक्राकार जम्बूद्वीप में भरत क्षेत्र नामक एक क्षेत्र है जो देखने में चन्द्र के सप्तमांश की तरह है । इसी भरत क्षेत्र के दक्षिणार्द्ध में रत्नपुर नामक एक नगर है जो कि मध्य दक्षिणार्द्ध का अलङ्कार तुल्य और अमरावती की तरह है । उसी नगर में श्रीसेन नामक एक राजा राज्य करते थे । वे पद्मवक्षु थे । कारण प्रस्फुटित पद्म पर ही श्री निवास करती है । धर्म पर उनकी अपने अग्रज की तरह श्रद्धा थी और अर्थ एवं काम को वे अपने अनुज की भाँति सुरक्षित रखते थे । वे सदैव आवेदन करने वालों का आवेदन पूर्ण करते; किन्तु कामी परस्त्री का आवेदन नहीं सुनते थे, कारण वे सम्यक चारित्र में अधिष्ठित थे । उनका सौन्दर्य इतना अनन्य था कि चित्रकार भी उसे अंकित नहीं कर पाते थे । आधिपत्य की रक्षा के लिए वे कर ग्रहण करते थे; किन्तु कल्प वृक्ष की तरह करुणा की उपासना करते थे अर्थात् कर रूप में जो ग्रहण करते थे वह प्रार्थियों को दान कर देते थे ।
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( श्लोक ३ - ९ )
उनकी पत्नी का नाम अभिनन्दिता था । उनका चरित्र जैसा अनिन्द्य था वैसी ही उनकी वाणी मनमुग्धकर और दृष्टि रूपी कमल के लिए वे स्वयं चन्द्रिका की तरह मनोहर थी । वे
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