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[८९ पर द्रव्य हरण, बार-बार मैथुन सेवन एवं इन्द्रियों के वशीभूत होना नरकगति के आयुष्य कर्म बन्ध का कारण बनता है।'
(श्लोक १०६-१०८) _ 'उन्मार्ग उपदेश, सन्मार्ग नाश, गुप्त भाव से धन का संरक्षण, आत ध्यान, शल्ययुक्त हृदय, माया, आरम्भ परिग्रह, नील और कपोत लेश्या, शील एवं व्रत को दूषित करना, अप्रत्याख्यान, कषाय, तीर्यच गति के आयुष्य कर्म बन्ध का कारण बनता है।'
(श्लोक १०९-११०) 'अल्प परिग्रह और अल्प आरम्भ, स्वाभाविक कोमलता और सरलता, कापोत और पीत लेश्या, धर्म ध्यान में अनुराग, प्रत्याख्यानी कषाय, मध्यम परिणाम, दान देने में रुचि, देव और गुरु की सेवा, पूर्वालाप (स्वागत संभाषण), प्रियालाप (प्रेम पूर्वक समझाना), सांसारिक कार्य में मध्यस्थता मनुष्यगति के आयुष्य कर्म बन्ध का कारण है।'
(श्लोक १११-११३) ___'सराग संयम, देश संयम, अकाम निर्जरा, सुगुरु से सम्बन्ध, धर्म श्रवण में रुचि, सुपात्रदान, तप, श्रद्धा, ज्ञान दर्शन व चारित्र रूप त्रिरत्न की आराधना, मृत्यु के समय तेज एवं पद्म लेश्या के परिणाम, बाल तप, अग्नि जलादि साधन से मृत्यु और अव्यक्त समभाव देवगति के आयुष्य कर्म बन्ध का कारण है।'
(श्लोक ११४-११६) 'मन वचन काया की वक्रता, दूसरों को ठगना, कपट करना, मिथ्यात्व, पैशुन्य, मानसिक चंचलता, नकल, चाँदी-सोना आदि से प्रवंचित करना, मिथ्या साक्षी देना, वस्तु का वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श बदलकर छल करना, किसी जीव के अंग-उपांगों को काटनाकटवाना, यन्त्रादि या पीजरा बनाना, वजन कम करना, आत्म प्रशंसा, पर निन्दा करना, हिंसा, असत्य, अनृत, अब्रह्मचर्य, महारम्भ, महापरिग्रह सेवन, कठोर और तुच्छ भाषण करना, उज्ज्वल वस्त्रादि का अभिमान करना, वाचालता, आक्रोश करना, किसी का सूखसौभाग्य नष्ट करना, किसी का अनिष्ट करने के लिए मन्त्र-तन्त्रादि का प्रयोग करना, त्यागी होने का दम्भ कर उन्मार्ग में गमन करना, साधु बनकर दूसरों के मन में कौतुक उत्पन्न करना, वैश्यादि को अलंकार देना, वन में आग लगाना, चोरी करना, तीव्र कषाय,