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विभिन्न प्रकार क्रीड़ा-कौतुक व दूसरे के मन को अपनी ओर आकृष्ट और वशीभूत करने की इच्छा रति मोहनीय कर्मबन्ध का कारण
(श्लोक ९५) ‘असूया (गुण को दोष रूप में देखना), पाप करने की प्रवृत्ति, अन्य की सुख-शान्ति को नष्ट होते देख खुश होना अरति मोहनीय कर्मबन्ध का कारण है।'
(श्लोक ९६) 'मन में भय को स्थान देना, दूसरों को भयभीत करना, त्रासित करना, निर्दय करना भय मोहनीय कर्म के बन्ध का कारण
(श्लोक ९७) _ 'मन में शोक उत्पन्न करना, अन्य को शोकान्वित करना, रुदन में अति आसक्ति शोक मोहनीय कर्म बन्ध का कारण है।'
(श्लोक ९८) 'चतुर्विध संघ की निन्दा करना, तिरस्कार करना और सदाचारी की कुत्सा प्रचार करना, जुगुप्सा मोहनीय कर्म बन्ध का कारण है।'
(श्लोक ९९) ____ 'ईर्ष्या, विषय-लोलुपता, मृषावाद, अतिवक्रता और पर-स्त्री गमन में आसक्ति स्त्रीवेद कर्म बन्ध का कारण है।' (श्लोक १००)
'स्व-स्त्री में सन्तोष, ईर्ष्याहीनता, मृदु स्वभाव, कषायों की मन्दता, प्रकृति की सरलता और सदाचार पालन पुरुष-वेद कर्म बन्ध का कारण है।'
(श्लोक १०१) 'स्त्री और पुरुष दोनों के चुम्बनादि अनंग सेवन, उग्र कषाय, तीव कामेच्छा, भण्डामि और स्त्रीव्रत को भंग करना नपुंसक वेद कर्म बन्ध का कारण है।'
(श्लोक १०२) _ 'साधुओं की निन्दा करना, धर्म-कार्य में बाधा देना, मद्य-मांस भक्षणकारियों के सम्मुख मद्य-मांस भक्षण की प्रशंसा करना, देशविरत श्रावकों के लिए बार-बार अन्तराय उत्पन्न करना, अविरति के गुणों का व्याख्यान करना एवं विरति के दोषों का, अन्यों का कषाय और लोकक्षय की उदीरणा करना चारित्र मोहनीय कर्म बन्ध का कारण है।
__ (श्लोक १०३-१०५) 'पंचेन्द्रिय जीवों का वध समारम्भ और महापरिग्रह, अनुकम्पाहीनता, मांस-भक्षण, स्थायी वैरभाव, रौद्र ध्यान, मिथ्यात्व, अनन्तानुबन्धी कषाय, कृष्णनील और कापोत लेश्या, असत्य भाषण,