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देखे । हिमाद्रिजाता गंगा जैसे क्रीड़ारत करि शिशु को धारण करती है उसी प्रकार रानी ने त्रिभुवन के आश्रय उनके भ्रूण को धारण किया । अग्रहण महीने की कृष्ण पंचमी को चन्द्र जब मूला नक्षत्र में था तब उन्होंने श्वेतवर्ण मकर लांछनयुक्त एक पुत्र रत्न को जन्म दिया । ( श्लोक २८ - ३२)
भोगंकरा आदि छप्पन दिक्कुमारियों ने भगवान् और उनकी माँ के जन्म कृत्य सम्पन्न किए । तब सौधर्मेन्द्र आभियोगिक देवों की तरह भक्तिसहित प्रभु को मेरु पर्वत पर ले गए और उसके दक्षिण में स्थित अतिपाण्डुकवला शिला पर प्रभु को गोद में लेकर सिंहासन पर बैठ गए । अच्युतादि तेसठ इन्द्रों ने तीर्थं से लाए जल से प्रभु का भक्तिपूर्वक स्नान करवाया । प्रहरी जिस प्रकार अपने पहरे के अन्त में रक्षित वस्तु दूसरे प्रहरी को अर्पण करता है उसी प्रकार सौधर्मेन्द्र ने प्रभु को ईशानेन्द्र की गोद में बैठाकर वृषशृङ्गों से निकलती जलधारा से उन्हें स्नान करवाया । प्रभु की देह पर नवीन और दिव्य विलेपनादि कर एवं अलङ्कार पहनाकर उन्होंने प्रभु की निम्न प्रकार की स्तुति की -
'धर्म के दृढ़ स्तम्भ स्वरूप, सम्यक् दर्शन के अमृत सरोवर तुल्य, विश्व को आनन्द दान करने में मेघरूप हे त्रिलोक नाथ ! आपकी जय हो । जबकि आपके गुणों और महानता के कारण त्रिलोक ने आपका दासत्व स्वीकार किया है तब आपकी अन्य किसी अलौकिक शक्ति के विषय में मैं क्या कहूं ? आपकी सेवा में मैं जैसा शोभित होता हूं स्वर्ग में भी वैसा शोभित नहीं होता । नूपुर में जिस प्रकार मणि शोभित होती है उस प्रकार पर्वत में नहीं होती । मोक्षकामी आप उस वैजयन्त से आए हैं जो कि मोक्ष ले जाता है तो निश्चित ही जो संसार में पथभ्रष्ट हो गए हैं उन्हें राह दिखाने आए हो । दीर्घकाल के पश्चात् भरत क्षेत्र रूपी गृह में आप अध्यात्म के आलोक रूप में आए हैं । अब श्रावक की भांति धर्म भी निर्भय व आनन्दित हो जाएगा । हे जगत्पति, आपके दिव्य - दीक्षा महोत्सव में यह देव -समूह भाग ले भाग्योदय से बहुत दिनों पश्चात् चन्द्रालोक-सा आपके दिव्य आलोक में संलीन होकर नेत्रों ने चकोरत्व प्राप्त किया है । मैं स्व- गृह में रहूं या देव -सभा में सर्वार्थ सिद्धि दानकारी आपका नाम कभी विस्मृत न होऊँ ।' ( श्लोक ३३-४७ )