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बुद्धि हो जाती है वह किसी वस्तु के वियोग होने पर मोह को प्राप्त नहीं होता। जिस प्रकार लौकी की खोल पर लगी मिट्टी धुल जाने पर वह जल पर तैरने लग जाती है उसी प्रकार अन्यत्व रूप भेद ज्ञान से जिसका मोह-मल विगलित हो गया है वह श्रामण्य ग्रहण कर अल्प समय में ही संसार-सागर को पार कर जाता है।'
(श्लोक ९८-१०५) इस देशना को सुनकर बहुत-से व्यक्तियों को सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई, कोई श्रमण बने, कोई श्रावक । विदर्भ आदि ९५ गणधर हुए और उन्होंने प्रभु की देशना से बारह अंगों की रचना की। प्रभु की देशना शेष होने पर गणधर-प्रमुख विदर्भ ने प्रभु के पाद-पीठ पर बैठकर देशना दी। जब गणधर-प्रवचन समाप्त हुआ तब देव और अन्यान्य जन भगवान् को वन्दना कर स्व-स्व स्थल को लौट गए।
(श्लोक १०६-१०९) __ सुपार्श्वनाथ के तीर्थ में कृष्णवर्ण हस्तीवाहन मातंग नामक यक्ष उत्पन्न हुए जिनके दाहिनी ओर के दोनों हाथों में विल्व और पाश थे और बायीं ओर के दोनों हाथों में नकुल और गदा थी। ये सुपार्श्व स्वामी के शासन देव हुए। इसी प्रकार उनके तीर्थ में कनकवर्णा हस्ती-वाहना शान्ता नामक देवी उत्पन्न हुई जिनके दाहिनी ओर के दोनों हाथों में एक हाथ वरद मुद्रा में था और अन्य हाथ में अक्षमाला थी। बायीं ओर के दोनों हाथों में से एक अभयमुद्रा में था दूसरे में त्रिशूल था।
(श्लोक ११०-११३) __तदुपरान्त प्रभु सूर्य जैसे कमल को प्रस्फुटित करता है उसी प्रकार भव्य जीवों को प्रमुदित कर ग्राम-ग्राम, नगर-नगर में विचरने लगे। प्रभु के तीर्थ में तीन लाख साधु, चार लाख तीस हजार साध्वियाँ, दो हजार तीस चौदह पूर्वधर, नौ हजार अवधिज्ञानी, नौ हजार एक सौ पचास मनःपर्यव ज्ञानी, ग्यारह हजार केवली, पन्द्रह हजार तीन सौ वैक्रियलब्धिधारी, चौरासी सौ वादी, दो लाख सत्तावन हजार श्रावक एवं चार लाख तिरानवे हजार श्राविकाएँ
(श्लोक ११४-११७) __ भगवान् को केवलज्ञान प्राप्त होने के पश्चात् बीस पूर्वांग और नौ महीने कम एक लाख पूर्व व्यतीत होने के पश्चात् वे सम्मेद शिखर पर्वत पर गए। वहाँ देवों एवं असुरों द्वारा सेवित होकर
थीं।