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फल के लिए लोग वृक्ष के निकट जाते हैं उसी भाँति दीक्षा के लिए मुनि के निकट गए। मुनि चरणों में दीक्षा ग्रहण कर पुरुष सिंह ने संसार को उत्तीर्ण करने में नौका तुल्य श्रामण्य ग्रहण किया। राजा जिस प्रकार अपने राज्य की रक्षा करता है वे भी उसी प्रकार अतिचार परिहार एवं समस्त जीवों की सुरक्षा की कामना करते हुए श्रामण्य धर्म का पालन करने लगे। बीस स्थानकों में कई स्थानकों की आराधना कर उन्होंने तीर्थंकर गोत्र कर्म उपार्जन किया। बहुत दिनों तक प्रव्रजन करते हुए अनशन से देह त्याग कर वे वैजयन्त विमान में देव रूप में उत्पन्न हुए।
(श्लोक ११५-१२०) जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में शक्तिमान और धनशालियों की निवास भूमि विनीता नामक एक नगरी थी। उसके प्राकार शीर्ष रौप्य-मण्डित होने के कारण ऐसे लगते मानो वे अन्य द्वीप से लाए चन्द्र द्वारा निर्मित हों। रत्न निधान वह नगरी रौप्य प्राकारों से ऐसी लगती मानो सुरक्षा के लिए शेष नाग द्वारा चक्राकार में परिवेष्टित हो गई है। रत्न-जड़ित छत पर चन्द्रप्रतिबिम्बित होने से दधि भ्रम में गृह-मार्जार उसे चाटती यहाँ तक कि नगर के कीड़ाशुक भी सर्वदा अर्हत, देव, गुरु और साधु शब्दों का उच्चारण करते रहते कारण प्रति गृह में वे ये ही शब्द सुनते रहते थे। हर घर से जो अगरु की धूम-शिखा निकलती थी वह आकाश में तमाल वृक्ष का भ्रम उत्पन्न करती थी। विनीता के उद्यान धारा-यंत्रों से उत्क्षिप्त जल-कणिकाओं के धम्र से इस भाँति आवत्त रहते कि शैत्य के भय से सूर्य वहाँ प्रवेश ही नहीं कर पाते।
(श्लोक १२१.१२७) उस नगरी में इक्ष्वाकुवंश के तिलक रूप मेघ-से सबको आनंद देने वाले मेघरथ नामक एक राजा राज्य करते थे। उनका अतुल वैभव दरिद्रों के लिए व्यय होते रहने पर भी नहर के जल की भाँति वह नियत वृद्धिगत होता रहता। राजालोग देव समझकर पंचांगों से भूमि-स्पर्श पूर्वक उन्हें प्रणाम करते और वस्त्र, रत्न, अलंकारादि उपहार देते। उनके प्रताप ने मध्याह्न का सूर्य जैसे देह की छाया को संकुचित करता है उसी प्रकार शत्रुओं के प्रताप को संकुचित कर दिया था। वैभव, शान्ति और पराक्रम में वे पैंसठवें इन्द्र की भाँति सुशोभित होते।
(श्लोक १२८-१३२) समस्त मंगलों के निधान धर्म की पताका मानो द्वितीय गह