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गुप्तियों का पालन करना पड़ेगा। द्रव्य, स्थान, काल, भाव की पर्यालोचना कर यथा नियम एक-एक महीने की प्रतिमा तुम्हें धारप्प करनी पड़ेगी। जब तक जीवित रहोगे स्नान नहीं कर सकोगे, धरती पर सोना होगा, केशोत्पाटन करना होगा, देह-यत्न रहित होना होगा और गुरु के साथ रहकर समभाव से कृच्छता और उपसर्गों को सहन कर १८००० प्रकार का सम्यक् चारित्र पालन करना होगा । हे सुकुमार राजपुत्र, श्रामण्य ग्रहण कर तुम्हें इन लोहे के चनों को सदैव चबाना पड़ेगा। मात्र बाहुओं के सहारे दुस्तर संसार-समुद्र को अतिक्रम करना होगा। नंगे पैर तेज धार वाली तलवार की धार पर चलना होगा । अग्निशिखा पीनी होगी। मेरु पर्वत को तुलादण्ड पर तोलना होगा और बाढ़-विक्षुब्ध गंगा को प्रतिकूल प्रवाह में पार करना होगा। तुम्हें अकेले ही दुर्धर्ष शत्रुओं को परास्त करना होगा व घूर्णमान चक्र के भीतर राधावेध को विद्ध करना होगा। आजीवन श्रामण्य ग्रहण करने के लिए अनुपम चारित्र, अनुपम तितिक्षा, अनुपम बुद्धि और अनुपम शक्ति आवश्यकीय है।'
____ (श्लोक ९७-१०८) यह सुनकर कुमार विनीत भाव से बोले –'पूज्यवर, श्रामण्य वैसा ही है जैसा आप बता रहे हैं; किन्तु मेरा कहना है गार्हस्थ धर्म को पालन करने में जिस दुःख का अनुभव होता है उसके शतांश के एक अंश का भी क्या श्रामण्य धर्म पालन करने में होता है ? जैसे नरक की यंत्रणा जो कि कहने में भी दुष्कर है, सुनने भी दुष्कर है उसके विषय में तो नहीं कहता पर इस संसार में भी जीव को बद्ध होने की, हत्या कर दिए जाने की, प्रहार किए जाने की यंत्रणा सहनी होती है। मनुष्य को कितने प्रकार की आधि-व्याधि से पीड़ित होना पड़ता है, उन्हें कारागार में डाल दिया जाता है, अंगभंग कर दिया जाता है, चमड़ा उतार लिया जाता है, आग में जला दिया जाता है, शिरच्छेद कर दिया जाता है यहाँ तक कि देवों को भी मित्र-विरह, शत्रु द्वारा अपमान, च्यवन का ज्ञान आदि महाकष्टों को सहना पड़ता है।'
___(श्लोक १०९-११४) यह सुनकर सन्तुष्ट बने माता-पिता ने उन्हें श्रामण्य ग्रहण की अनुमति दे दी और 'जय-जय' शब्द से उन्हें अभिनन्दित किया। उनके पिता ने अभिनिष्क्रमणोत्सव किया और कुमार भी जिस प्रकार