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करते हुए प्रभु के आगे चलने लगे। मुहूर्त भर में शक्र अतिपांडुकवला शिला पर जा पहुंचे और प्रभु को गोद में लिए ही सिंहासन पर बैठ गए। तत्पश्चात् अच्यूतादि त्रेसठ इन्द्र भी सपरिवार वहां आए और यथोचित स्नानाभिषेक किया। ईशानेन्द्र ने भी पांच रूप धारण कर एक रूप से प्रभु को गोद में लिया, दूसरे से छत्र धारण किया, तीसरे-चौथे रूप में चँवर डुलाने लगे, पांचवें रूप में बज्र हाथ में लिए उनके सम्मुख खड़े हो गए। शक ने चारों दिशाओं में स्फटिक के चार वषभों का निर्माण किया और उनके शृङ्गों से निर्गत जल से प्रभु को स्नान करवाया। स्नानाभिषेक के पश्चात् शक ने वंदना की एवं वस्त्रालंकारों से उन्हें भूषित कर हाथ जोड़कर उनके सम्मुख इस प्रकार स्तुति करने लगे : (श्लोक ६५ ७४)
'हे भगवन्, हे चतुर्थ तीर्थङ्कर, कालचक्र के चतुर्थ आरे के भास्कर, चातुर्याम धर्म प्रकाशक आपकी जय हो। दीर्घ दिनों के पश्चात् आप जैसे तीर्थपति को प्राप्त कर विवेकहरणकारी मिथ्या द्वारा पृथ्वी अब आक्रान्त नहीं होगी। आपके पादपीठ पर न्यस्त मेरे मस्तक पर पुण्य-पणिका रूप आपकी चरणधूलि गिरे। मेरी दष्टि आपमें संलग्न रहे। जो दर्शनीय नहीं है ऐसी वस्तुओं के दर्शन से मेरे जो नेत्र अपवित्र हो गए हैं वे मुहर्त भर में आनन्द के आंसुओं से धुल जाएँ। दीर्घ दिनों के पश्चात् आपके दर्शनों से जो रोमांच हुआ है उससे अयोग्य वस्तु की दर्शन जनित जो स्मृति मेरे मस्तिष्क में थी वह दूर हो जाए। आपके मुखारविन्द के दर्शन से मेरे नेत्र सदैव नत्य करें, मेरे हाथ सदैव आपकी पूजा करें और मेरे कर्ण हमेशा आपके गुणानुवादों का श्रवण करें। मेरे कण्ठ के अवरुद्ध होने पर भी वह आपके गुणानुवाद के लिए तत्पर है । आनन्द के कारण ही वह अवरुद्ध है, अन्य कारण से नहीं। मैं आपका सेवक, दास और उपासक हूं। मैं अधम हूं। हे भगवन् ! ऐसा कहकर अब मैं निवृत्त होता हूं।
(श्लोक ७५-८२) ___ इस प्रकार स्तुति कर इन्द्र ने पंच रूप धारण किए। एक रूप में ईशानेन्द्र ने प्रभु को ग्रहण किया, दूसरे रूप से छत्र धारण किया, अन्य दो रूपों में चँवर डुलाने लगे, शेष एक में वज्र हाथ में लेकर मुहूर्त भर में स्वामी के घर पहुंच गए। वहां उन्होंने अवस्वापिनी निद्रा और प्रभु की मूर्ति को हटा दिया एवं त्रिभुवन