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करता । काल न पाप का निरादर और पुण्य का आदर करता है । दावानल जिस प्रकार समस्त अरण्य को जला डालता है काल भी उसी प्रकार सब कुछ नष्ट कर डालता है । यदि कहीं किसी कुशास्त्र में लिखा भी हो कि इस देह को अमर और स्थायी बनाया जा सकता है तो भी उस पर विश्वास करना उचित नहीं है । जो देवेन्द्रादि सुमेरु पर्वत को दण्ड और पृथ्वी को छत करने में समर्थ हैं वे भी मृत्यु से बचने और बचाने में असमर्थ हैं । सामान्य कीट से लेकर वैभवशाली इन्द्र पर्यन्त सब पर यमराज का शासन समान रूप से अव्याहत है । ऐसी अवस्था में काल को धोखा देना कोई बुद्धिमान व्यक्ति सोच नहीं सकता । कभी किसी ने अपने पूर्व पुरुषों को कहीं अमर होते देखा हो ऐसा नहीं पाया गया । फिर भी काल को छलने की बात संदेहास्पद है ।' ( श्लोक ३५७ - ३६४)
'यह समझना है कि यौवन भी अनित्य है, वृद्धावस्था यौवन के रूप और सौन्दर्य का हरण कर लेती है । यौवन में सुन्दर लड़कियां जिसे चाहती हैं वार्द्धक्य में वे ही उससे घृणा कर उसका परित्याग कर देती हैं । अनेक कष्टों से जिस धन का संग्रह किया जाता है, उपभोग न कर संचय किया जाता है, धनवानों का वह धन भी मुहूर्तमान में नष्ट हो जाता है । जो धन देखते-देखते नष्ट हो जाता है उसका तो कहना ही क्या ? वह धन भी विद्युत और जल-बुदबुदों की तरह ही क्षणभंगुर है । बन्धु बान्धव, आत्मीय परिजनों के साथ मिलन भी अनित्य है कारण मृत्यु, स्थान- परिवर्तन आदि के द्वारा वह भी समाप्त हो जाता है । जो नित्य अनित्यता की भावना करता है वह अपने प्रिय पुत्र की मृत्यु पर भी शोक नहीं करता और वह मुग्ध प्राणी जो नित्यता का आग्रह करता है वही घर की एक दीवार टूट कर गिर जाने पर भी रो पड़ता है | शरीर, यौवन धन एवं कुटुम्बादि ही अनित्य नहीं है बल्कि चर-अचर संसार भी अनित्य है । सब कुछ को अनित्य जानकर जो आत्मार्थी परिग्रह का त्याग करता है वह नित्यानन्दमय परम पद को प्राप्त करने का प्रयत्न करता है ।' ( श्लोक ३६५-३७२)
कई स्त्री-पुरुषों ने
भगवान् की देशना श्रवण कर तत्काल उनसे दीक्षा ग्रहण कर ली । तदुपरान्त प्रभु ने
उत्पाद - व्यय - ध्रौव्य
इस त्रिपदी की चारु आदि उन उन व्यक्तियों को जिनके गणधर