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२२] आपसे फल के लिए प्रार्थना कर रहा हूं। आप कल्प वृक्ष तुल्य हैंकभी विनष्ट नहीं होने वाला आपका फल जीवन को शाश्वत बना देता है। हे जिन, आप राग-द्वष से मुक्त कारुणिक समदर्शी शरण्य और जगत के रक्षक हैं। भत्य न होने पर भी मैं आपका भत्य हूं। मैंने आपको अपनी आत्मा दे डाली है कारण आप अरक्षित होने पर भी रत्नों के निधान हैं, घेरे न रहने पर भी कल्पवृक्ष हैं, अचिन्त्य भाव-रत्न के अधिकारी हैं। मैं ध्यान रूपी फल से शून्य हूं। आप उस फल के मूर्त-रूप हैं। मैं अज्ञानी हूं। क्या करना होगा, नहीं जानता । आप मुझ पर दया करिए।'
(श्लोक ३४१-३४९) इस प्रकार स्तुति कर शक के आसन ग्रहण कर लेने पर भगवान् सम्भवनाथ ने जगत-कल्याण के लिए यह उपदेश दिया : ।
'इस संसार की समस्त वस्तुएँ ही अनित्य हैं, नाशवान हैं फिर भी प्राथमिक मधुरता के कारण जीव उनमें मूच्छित हो जाता है। संसार के जीवों के अपनी ओर से, दूसरों की ओर से, चारों ओर से विपत्ति ही विपत्ति आती रहती है। वे कृतान्तों के दाँतों के मध्य धृत होकर काल के मुख-विवर में निवास करते हैं। अनित्यता जबकि वज्र से दृढ़ एवं कठोर शरीर को भी जर्जरित कर देती है तब कदली वृक्ष से कोमलतनु मनुष्यों का तो कहना ही क्या ? यदि कोई निःसार और नाशवान शरीर को अविनाशी समझता है तब तो उसका प्रयत्न घास-फूस द्वारा निर्मित मनुष्यों को अविनाशी समझने जैसा ही है जो कि आंधी-वर्षा में गल जाता है। व्याघ्र रूपी काल के मुख में पकड़े हए मनुष्य की मन्त्र-तन्त्र औषधि एवं देव-दानवों की कोई भी शक्ति रक्षा नहीं कर सकती। मनुष्य की उम्र जैसे-जैसे बढ़ती जाती है वार्द्धक्य उसे निगलने लगता है और वह मृत्यु के निकट आ जाता है । इस रूप में मनुष्य-जन्म को धिक्कार है।
(श्लोक ३५०-३५६) _ 'मनुष्य यदि कभी यह सोचे कि वह काल रूपी कृतान्त के अधीन है तो उसकी रुचि आहार-ग्रहण में भी नहीं रहेगी, पाप कार्य करना तो दूर की बात है । जल में जैसे बुदबुदे उत्पन्न होते हैं, नष्ट होते हैं, उसी प्रकार मनुष्य देह भी उत्पन्न होती है, नष्ट हो जाती है। काल का तो स्वभाव ही नष्ट करना है । वह धनाढ्य या निर्धन, राजा या रंक, ज्ञानी या मूर्ख, सज्जन या दुर्जन का कोई भेद नहीं