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वैजयन्त दोनों देव यह सुनकर विश्वास न होने के कारण वैद्य के रूप में सनत्कुमार के पास पहुंचे। वे उन्हें बोले, 'हे महामना, आप क्यों रोग से कष्ट पा रहे हैं ? हम वैद्य हैं । हम चिकित्सा द्वारा इस रोग को निरामय कर सकते हैं । आप यदि सम्मति दें तो आपका जो शरीर व्याधिग्रस्त हो गया है, उसे इसी मुहूर्त्त में हम रोगरहित कर सकते हैं ? ' ( श्लोक ३८८-३९३)
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सनत्कुमार बोले, 'हे वैद्यगण, व्याधि दो प्रकार की होती है । एक द्रव्यव्याधि, दूसरी भाव-व्याधि । क्रोध, मान, माया, लोभ भाव-व्याधि है जो कि मनुष्य को हजारों जन्म तक कष्ट देती है। यदि आप उसका निरामय कर सके तो सर्वतोभावेन अवश्य ही निरामय कर दीजिए और यदि द्रव्य-व्याधि निरामय कर सकते हैं तो देखिए'( श्लोक ३९४-३९६ )
पर अपना थूक स्वर्ण वर्ण हो
ऐसा कहकर अपनी क्षतग्रस्त अंगुली लगाया । पारा के स्पर्श से ताम्बा जिस प्रकार जाता है वैसे ही वह अंगुली स्वर्ण-सी हो गयी । यह देख कर वे देव उनके पैरों पर गिर कर बोले, 'ऋषिवर, हम वही दोनों देव हैं जो इन्द्र की बात का विश्वास न होने से आपका रूप देखने आए थे। आज भी इन्द्र ने जब कहा - ' व्याधि निरामय की लब्धि होते हुए भी ऋषि सनत्कुमार रोग यन्त्रणा सहन करते हुए उत्तम तप कर रहे हैं तो हमें विश्वास नहीं हुआ । अतः यहाँ आपकी लब्धि देखने आए थे । अब उसे अपनी आँखो से देख लिया है ।' ऐसा कह कर उन्हें प्रणाम कर देव चले गए ।
( श्लोक ३९७ - ४०१ ) चक्री की आयु ३ लाख वर्ष की थी । ५०००० वर्ष उन्हें कुमारावस्था में, ५०००० वर्ष माण्डलिक राजा के रूप में, १०००० वर्ष दिग्विजय में, ९०००० वर्ष चक्री रूप में व १००००० वर्ष व्रती रूप में व्यतीत किए । मृत्यु समय आने पर उन्होंने संलेखना व्रत ग्रहण कर लिया और पंच परमेष्ठी का स्मरण करते हुए शुक्ल ध्यान में देह त्याग कर सनत्कुमार देवलोक में देव रूप में उत्पन्न हुए । ( श्लोक ४०२-४०४ ) शास्त्र रूप समुद्र से संगृहीत मुक्ता-सा यह चतुर्थ पर्व, जहाँ