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२५६] और विद्याधर कन्याएँ जो इस युद्ध को देख रही थीं ऋतुलक्ष्मी की तरह आर्यपुत्र पर पुष्य वर्षा करने लगीं। (श्लोक २०९-२१४)
'अपराह्न में आर्यपुत्र दृढ़ संकल्प कर मदमस्त हस्ती की तरह कुछ आगे बढ़े। वहाँ उन्होंने नन्दन से आगत मदन को संजीवित करने वाली खेचर कन्याओं को देखा। उन्होंने आपके मित्र को स्वयंवर-माल्य की तरह हावभाव और विलासपूर्ण दृष्टि से देखा। वस्तुस्थिति जानने के लिए विचक्षणों में अग्रणी आपके मित्र उनके पास जाकर अमृत-निःस्यन्दी स्वर में पूछने लगे
'तुम लोग किन महानुभावों की कन्या हो? किस कुल की अलंकार रूपा हो? इस वन में किसलिए घूम रही हो?' उन्होंने उत्तर दिया-'देव, हम आठों विद्याधर राज भानुवेग की कन्याएँ हैं। हमारे पिताजी की राजधानी यहाँ से दूर नहीं है। कमल पर राजहंस जिस प्रकार निवास करता है उसी प्रकार उस नगरी में निवास कर आप उसे अलंकृत करिए।
(श्लोक २१५-२२१) ___ 'उनकी बात सुनकर आपके मित्र मानो सन्ध्याकृत्य करने जा रहे हैं इस भाँति उस नगर में गए। सूर्य अस्त हो गया। पान की चिन्ता से चिन्तित व्यक्ति के लिए वैशल्यकरणी तुल्य आपके मित्र को उन्होंने द्वार-रक्षक द्वारा अपने पिता के पास भेजा। उन्हें देखकर उनकी अभ्यर्थना के लिए भानुवेग उठकर खड़ा हुआ और बोला
___'देवकृपा से ही आप जैसे गुणवंत द्वारा मेरा घर पवित्र हुआ है। आपको देखने से ही लगता है कि आप उच्चकुल जात
और शक्तिशाली हैं। चन्द्र का जन्म क्षीर समुद्र से हुआ है यह तो चन्द्र को देखने से ही पता चल जाता है। आप मेरी कन्याओं के लिए उपयुक्त वर हैं इसलिए मैं अपनी आठों कन्याओं का विवाह आपके साथ करना चाहता हूं। कारण स्वर्ण में ही रत्न जड़ा जाता है।'
(श्लोक २२२-२२६) _ 'इस प्रकार अनुरुद्ध होकर आपके मित्र ने उसी समय दिक् कुमारियों-सी उन आठों कन्याओं से विधिवत् विवाह कर लिया। मंगलसूत्रबद्ध अवस्था में वे केलिगृह में उनके साथ शयन करने गए