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कातर थे; नहीं पाए
श्वास रुक गया । तब आर्यपुत्र जल की खोज में इधर-उधर घूमने लगे कारण वे स्वयं भी तो तृष्णा से किन्तु मरुभूमि से उस अरण्य में वे किसी को भी देख । आपके मित्र तो ऐसे ही कोमल ही हैं फिर दीर्घ यात्रा की क्लान्ति एवं दावानल के उत्ताप से क्लिष्ट होने के कारण अधिक दूर नहीं जा सके । अतः एक सप्तपर्ण वृक्ष के नीचे बैठ गए और वहीं मूच्छित हो गए ।
( श्लोक १७६- १८५) 'उनके पूर्व जन्म का पुण्य था । इसलिए उस वन के अधिष्ठाता यक्ष उन पर अनुकूल होकर शीतल जल लाए और मुख पर छींटा । शीतलता के संचार से उनकी संज्ञा लौटी, वे उठ बैठे और उसके द्वारा दिया जल पिया । तदुपरान्त उन्होंने पूछा - 'देव, आप कौन हैं और यह जल आप कहाँ से लाए ? ' प्रत्युत्तर में यक्ष बोला- 'मैं यहाँ का अधिवासी हूं और यह जल आपके लिए मानसरोवर से लाया ।' तब आर्यपुत्र बोले- 'मेरे शरीर में जो दाह है लगता है वह मानसरोवर में स्नान किए बिना शान्त नहीं होगा ।' मैं आपकी इच्छा पूर्ण करूंगा' कह कर वह देव उन्हें कदली कुम्भ पर बैठा कर मानसरोवर ले गया। वहां महावत जैसे हाथी को स्नान करवाता है वैसे ही आर्यपुत्र ने नानाविध क्रीड़ा करते हुए स्नान किया । मर्दन करने वालों के हाथों के स्पर्श से जिस प्रकार शरीर की व्यथा दूर हो जाती है उसी प्रकार शीतल जल ने उनके समस्त शरीर में प्रविष्ट होकर उनकी क्लान्ति दूर कर दी । ( श्लोक १८६ - १९२) 'जब वे स्नान कर रहे थे । तब उनके पूर्व जन्म का शत्रु असिताक्ष नामक देव मानो दूसरा कृतान्त ही हो इस भांति वहाँ आया और बोला- 'अरे ओ दुवृत्त, क्षुधार्थ सिंह जैसे हस्ती की खोज करता है उसी प्रकार मैं भी बहुत दिनों से तुझ खोज रहा था । अब तू कहां जाएगा ?' यह कहकर एक वृहद् वृक्ष उखाड़ कर लकड़ी की तरह उसे आर्यपुत्र पर फेंका । आपके मित्र ने मुष्ठी आघात से उस वृक्ष को हस्ती जैसे महावत को सहज ही उठा फेंकता है उसी प्रकार फेंक दिया । तब उसी यक्ष ने प्रलयकालीन अन्धकार की तरह समस्त पृथ्वी को अन्धकारमय कर डाला । उसने मन्त्रबल से अन्धकार के मानो सहोदर हो ऐसे धूम्रवर्ण और विकटाकार पिशाचों की सृष्टि की जिनके