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कुमारावस्था में रहे, पाँच लाख वर्ष तक राज्य संचालन किया, अढ़ाई लाख वर्ष तक चारित्र पालन किया। इस प्रकार पूरे दस लाख वर्ष तक की पूर्णायु भोग कर वे निर्वाण को प्राप्त हुए।
(श्लोक ३५९-३६३) पंचम वासुदेव पुरुषसिंह युद्धादि क्रूर कर्म करने के कारण छठे नरक में गए। वे ३०० वर्ष युवराज रूप में, १२५० वर्ष शासक रूप में, ७० वर्ष दिग्विजय में और ९९८३८० वर्ष राजा रूप में रहे। उनकी कुल आयु १० लाख वर्ष की थी। (श्लोक ३६४-३६७)
भ्रातृ वियोग में दुःखी बलराम, सुदर्शन साधुकीति से दीक्षा लेकर १३ लाख वर्ष की पूर्ण आयु भोगकर मोक्ष को प्राप्त किया।
(श्लोक ३६८) पंचम सर्ग समाप्त
षष्ठ सर्ग भगवान वासुपूज्य के तीर्थ में इस भरतक्षेत्र के महीमण्डल नामक नगर में अमरपति नामक एक राजा राज्य करते थे। अनाथों के नाथ वे नपश्रेष्ठ उत्तम साधू जिस प्रकार सम्यक चरित्र के प्रति प्रयत्नशील रहता है उसी प्रकार वे सम्यक व्यवहार के प्रति प्रयत्नशील थे। वे पुष्पवृन्त द्वारा भी कभी किसी को आघात नहीं पहुंचाते थे बल्कि नवीन पुष्पों की भाँति उनकी रक्षा करते थे। विवेकशील वे उन लोगों के उच्च और नीच स्वभाव के लिए काम और ऐश्वर्य को नुपूर की भाँति और धर्म को मुकुट की भाँति धारण करते थे। सर्वोच्च सुख प्रदान करने वाले मन्त्र की तरह वे अहेत देव गुरु साधु धर्म और अनुकम्पा की आराधना करते थे।
(श्लोक १-६) एक दिन वही उच्चमना विवेकी राजा सबको निर्भय करने के पश्चात् व्याधि-से राज्य भार का परित्याग कर श्रमण हो गए। अप्रमाद द्वारा विजय प्राप्त कर वे चिर काल तक संयम पालन में निरत रह कर राज्य रक्षा की तरह साधुत्व का पालन करने लगे। दिव्य रत्नों से जैसे अलंकार सुशोभित होता है उसी प्रकार वे अतिचारहीन मूल और उत्तर गुणों से सुशोभित थे।