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प्राप्त कर लेती है । सन्तोषी तृणशय्या पर सोकर भी जो आनन्द प्राप्त करता है असन्तोषी रूई के नरम बिछौने पर सोकर भी उस आनन्द को प्राप्त नहीं करता । असन्तोषी धनवान सन्तोषी समर्थ पुरुष के सम्मुख तृण तुल्य है । चक्रवर्ती और इन्द्रादि का ऋद्धिजनित सुख प्रयास जन्य और नश्वर है; किन्तु सन्तोष से उत्पन्न सुख अप्रयास जन्य और नित्य है । अतः बुद्धिमान मनुष्य के लिए उचित है कि समस्त दोषों का आकर लोभ परित्याग कर अद्वैत सुख का आवास रूप सन्तोष का अवलम्बन करे । इस प्रकार कषाय विजयी इस लोक में मोक्ष सुख का भोग करता है, परलोक में मोक्ष लक्ष्मी प्राप्त करता है ।' ( श्लोक ३४३ - ३४८ ) प्रभु की यह देशना सुनकर अनेकों ने श्रमण धर्म ग्रहण कर लिया । बलदेव आदि बहुत से व्रतधारी श्रावक बने । वासुदेव ने सम्यक्त्व प्राप्त किया । दिन का प्रथम प्रहर समाप्त होने पर प्रभु ने देशना समाप्त की । इन्हीं के पादपीठ पर बैठ कर गणधर अरिष्ट ने देशना दी । दिन का दूसरा याम समाप्त होने पर उन्होंने भी अपनी देशना समाप्त की । तत्पश्चात् अर्हत् वन्दना कर शक्र, वासुदेव, बलदेव व अन्यान्य अपने-अपने स्थान को चले गए । भगवान् धर्मनाथ स्वामी अपने समस्त अतिशयों सहित पृथ्वी के एक स्थान से दूसरे स्थान पर प्रव्रजन करने लगे । ( श्लोक ३४९-३५२) धर्मनाथ स्वामी के परिवार में ६४००० साधु, ६२४०० साध्वियाँ, ९०० चौदह पूर्वधारी, ३६०० अवधिज्ञानी, ३५०० मनः पर्याय ज्ञानी, ३५०० केवलज्ञानी, ३००० वैक्रिय लब्धि सम्पन्न, २८०० वादी, २४०,००० श्रावक और ३,१३००० श्राविकाएँ थीं । केवल ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात् दो वर्ष कम अढ़ाई लाख पूर्व तक प्रभु ने पृथ्वी पर विचरण किया । ( श्लोक ३५३-३५८) अपना मोक्ष समय निकट जानकर प्रभु ८०० मुनियों सहित सम्मेत शिखर पर्वत पर आए और अनशन तप प्रारम्भ किया । एक मास पश्चात् ज्यैष्ठ शुक्ला पंचमी को चन्द्र जब पुष्य नक्षत्र में अवस्थान कर रहा था तब धर्मनाथ स्वामी ने ८०० मुनियों सहित मोक्ष प्राप्त किया । देव एवं शक्रादि ने प्रभु का निर्वाणोत्सव संपन्न किया । अनन्तनाथ स्वामी के निर्वाण के चार सागर वर्ष के पश्चात् धर्मनाथ स्वामी का निर्वाण हुआ । प्रभु अढाई लाख वर्ष तक