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ऐसे ही चले जाएँगे; किन्तु मैं उसके पूर्व ही अग्नि-प्रवेश करूंगी ताकि मेरा साहस दुर्बल न हो जाए। पुत्र, क्षत्रिय वंश के नियमपालन में स्नेह के वशीभूत होकर मुझे बाधा मत दो। मेरा आशीर्वाद है तुम और सुदर्शन उन्नति करो और मैं अग्नि-स्नान कर पति के पूर्व गमन करूं। इस अनुष्ठान में किसी भी बाधा की सृष्टि मत करो।'
(श्लोक १२०-१२६) ऐसा कहकर स्वामी की मृत्यु के संवाद को सुनने के भय से मानो रानी परलोक के द्वार रूप अग्नि में प्रविष्ट होने को चल दी।
(श्लोक १२७) दुःख में दुःख ने युक्त होकर जुआ की भांति उनकी देह को क्षीण कर दिया। समतल भूमि पर भी वे लड़खड़ाते हुए पिता के पास पहुंचे। माँ की बात स्मरण कर पिता को रुग्ण देखकर उपचार में असमर्थ और स्वयं को असहाय पाकर वासुदेव धरती पर गिर पड़े। यद्यपि दाह-ज्वर से राजा पीड़ित थे फिर भी दृढ़ता धारण पुत्र से बोले-'पुत्र, तुम यह क्या कर रहे हो ? भय हमारे कुल के अनुपयुक्त है। यह पृथ्वी तुम्हारी महिषी है जिसकी रक्षा तुम्हें बाहुबल से करनी होगी। साहस के अभाव में उस पर गिर जाना तुम्हारे लिए लज्जास्पद है। साहस का परित्याग कर यह सिद्ध मत करो कि मैंने जो तुम्हारा नाम पुरुषसिंह रखा है वह अज्ञानताजन्य है।
(श्लोक १२८-१३२) पुत्र को इस प्रकार सान्त्वना देकर सुखों के निधान राजा शिव ने सन्ध्या समय देह का परित्याग कर दिया । भला मृत्यु को कौन रोक सका है ?
(श्लोक १३३) पिता की मृत्यु का संवाद सुनकर वासुदेव वात्याहत विशाल वृक्ष की तरह या वात जन्य वात पीड़ित व्यक्ति की तरह भूतल पर मूच्छित होकर गिर पड़े। कलश के जल उनके नेत्रों पर छींटे गए । संज्ञा लौटते ही वे उठकर खड़े हो गए और क्रन्दन करते हुए बोले-'पिताजी, क्या अब आपकी देह में वेदना नहीं है ? औषध का गुण ही क्या है ? किस वैद्य का विश्वास किया जा सकेगा? क्या आप शान्तिमय निन्द्रा में सो रहे हैं? उत्तर दीजिए पिताजी, मुझ पर दया करिए।' गम्भीर स्नेहवश इसी भाँति रह-रहकर कुछ कहते और रो पड़ते। कुल-वृद्धों के सान्त्वना