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वे बोले- 'पुत्र, तुम्हारा आचरण तो विपदा पर विपदा जैसा है। जाओ, आहारादि करके आओ कारण शरीर खाद्य-आहरण करके ही सब काम करता है।
(श्लोक १०६-१०७) ___ पिता की ऐसी आज्ञा से अनुबद्ध होकर वासुदेव ने मदस्रावी हस्ती की तरह सामान्य-सा आहार किया। न उन्होंने वस्त्र बदले, न पैरों में पादुका डाली। पिता की वेदना रूपी तप्त भूमि पर विजोरे की तरह दुःखी वासुदेव ने कुछ खाया न खाया कि पिता के प्रासाद में जाने को वहिर्गत हुए। दुःखी उनके अनुचर भी उनके साथ गए।
(श्लोक १०८-११०) ___ वे पिता के प्रासाद में प्रवेश कर ही रहे थे कि उनकी माँ की कंचुकी अश्रुपूरित नयन लिए. उनके सन्मुख आई और भयार्त्त कण्ठ से बोली-'कुमार, कुमार, रक्षा करो, रक्षा करो। महाराज, अभी जीवित हैं; किन्तु महारानी कैसा भयानक अकृत्य करने जा रही हैं।' यह सुनकर वासुदेव उद्विग्न मन लिए माँ के कक्ष में गए। महारानी उस समय अपने अनुचरों को आदेश दे रही थी
(श्लोक १११-११३) 'मेरे स्वामी के पुण्योदय में मेरे घर में जो रत्न, सुवर्ण, रौप्य, अलंकार, मुक्ता आदि संग्रहित हए हैं उसे सात क्षेत्रों में दान कर दो। जो दीर्घपथ की यात्रा करते हैं उनके लिए यह प्रथम आवश्यक है। अपने स्वामी की मृत्यु के पश्चात् मैं विधवा कहलवाना नहीं चाहती, मैं उनके पूर्व ही जाऊँगी, अत: शीघ्र ही अग्नि प्रज्वलित करो।'
- (श्लोक ११४-११७) दुःख की मानो प्रतिमूर्ति उनकी मां जब यह बोल रही थी तब वासुदेव उनके निकट गए और बोले-'माँ, मुझ हत्भाग्य को तुम भी छोड़कर चली जाओगी ? हाय दुर्दैव ! यह तुम क्या कर रही हो ?'
(श्लोक ११८-११९) महारानी अम्मका ने कहा- 'पुत्र, तुम्हारे पिता को प्राणांतक व्याधि लगी है। उनका विचक्षण वैद्यों ने परीक्षण कर लिया है। एक मूहर्त के लिए भी मैं 'विधवा' शब्द को सहन नहीं कर सकगी। इसलिए कुसुम्भी वस्त्र धारण कर मैं उनसे पूर्व ही चली जाऊँगी। मेरे स्वामी शिव ने और पंचम अर्द्धचक्री तुमने मेरे जीवन का जो उद्देश्य था वह पूर्ण कर दिया है। स्वामी की मृत्यु पर मेरे प्राण तो