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वासुदेव को मारने के लिए उत्सुक था फिर भी वह कम्पित कण्ठ से वासुदेव को बोला-'भागो, भागो, अज्ञानतावश तुम क्यों बाघिनी के दांत देखना चाहते हो? तुम जैसे बालक की हत्या करने से गजराज की शक्ति क्या चरितार्थ होती है ? मैं युद्ध विशारद और तुमसे बड़ा हूं। मेरी तुलना में तुम बहुत छोटे हो, पर्वत की तुलना में हाथी की तरह, बृहद् हाथी होने पर भी।' (श्लोक १७१-१७९)
वासुदेव प्रति-वासुदेव को हँसते हुए बोले-'सूर्य नवीन उदित होने पर भी अन्धकार को दूर कर देता है, अग्नि का एक स्फुलिङ्ग भी समग्र तृण को दग्ध कर देता है। वीरत्व का परिमाण यश द्वारा होता है । यश का वयस से क्या सम्बन्ध ? द्विधा की क्या आवश्यकता है ? निर्भय होकर अपना चक्र निक्षेप करो। विष उद्गीरण करके ही सर्प शान्त होता है उसके आगे नहीं।' (श्लोक १८०-१८२)
मधु ने चक्र को अँगुली पर धारण किया। शिशु जैसे फूलझड़ी घुमाता है उसी प्रकार उसे घुमाकर निक्षेप कर दिया। उस अग्नि उदगीरणकारी चक्र ने वासुदेव के वक्ष को नाभि के अग्रभाग द्वारा स्पर्श किया। उस आघात से मूच्छित होकर वे रथ में गिर पड़े। बलदेव ने उनके मस्तक को अपनी गोद में लिया। अमृत-स्नान की भांति भाई के स्पर्श से वासुदेव की संज्ञा लौट आई और मधु के आयुष्य के साथ ही मानो उन्होंने चक्र को हाथ में ले लिया ।
(श्लोक १८३-१८६) वासुदेव मधु को सम्बोधित करते हुए बोले-'अब तुम मेरी तरह खड़े रहने का साहस मत करो। भागो, शीघ्र भागो । कारण, केशरी सिंह के साथ कुक्कुर की क्या तुलना है ?' मधु बोला-'चक्र निक्षेप करो। शरद के मेघाडम्बर की तरह क्यों व्यर्थ गर्जना कर रहे हो ?' यह सुनते ही पुरुषोत्तम ने चक्र निक्षेप किया जिसने मधु के मस्तक को ताल फल की तरह जमीन पर निक्षिप्त कर दिया । देव जय-जयकार करते हुए आकाश से वासुदेव पर पुष्प वर्षा करने लगे और मधु के अनुचर 'प्रभु तुम कहां हो ?' कह-कहकर अश्रुपात करने लगे। पुरुषोत्तम के सेनापति ने महायोद्धा कैटभ को निहत कर डाला। मधु के सामन्त राजाओं ने उनका आधिपत्य स्वीकार कर लिया।
(श्लोक १८७-१९१) तदुपरान्त वासुदेव ने मगध, वरदाम और प्रभास सहित समग्र