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दिक्कुमारियां आई और जिन एवं जिनमाता को नमस्कार कर हाथ में पंखा लेकर पीछे की ओर जाकर खड़ी हो गई । उत्तर रुचकाद्रि से अलम्बुषा आदि श्राठ दिक्कुमारियां प्राई और जिन एवं जिनमाता को नमस्कार कर हाथ में चँवर लेकर गीत गाती हुई बाई ओर जाकर खड़ी हो गई । विदिशा के रुचक पर्वत से चित्रा श्रादि चार दिक्कुमारियां आई और पूर्वानुसार जिन एवं जिनमाता को नमस्कार कर हाथों में दीप लेकर गीत गाती हुई विदिशा में जाकर खड़ी हो गई ।
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( श्लोक १४४ - १४८ )
रुचक द्वीप से रूपादि चार दिक्कुमारियां वहां आई, उन्होंने भगवान् की नाड़ीनाल चार अंगुल परिमित रखकर काटी और उसको रत्न की तरह धरती में खड्डा खोदकर गाड़ दिया । हीरे और रत्नों से उस खड्डे को बन्द कर ऊपर दूर्वाघास से प्राच्छादित कर दिया । तदुपरान्त पश्चिम दिशा को छोड़कर भगवान् के जन्मगृह के तीनों ओर चार कक्षयुक्त कदलीगृह का निर्माण किया । बाद में जिनेश्वर को हाथ में लेकर एवं जिनमाता को हाथ का सहारा देकर दक्षिण के चतुःप्रकोष्ठ कदलीगृह में ले जाकर एक सिंहासन पर बैठाया । सुवासित लक्षपाक तेल दोनों की देह पर मर्दन किया और सुगन्धित उबटन लगाया । तदुपरान्त पूर्व दिशा के कदलीगृह में ले जाकर सिंहासन पर बैठाया और स्नान कराया । देवदुष्य वस्त्र से देह पोंछकर गोशीर्ष चन्दन - रस से चर्चित किया और दोनों को दिव्य वस्त्र एवं अलंकारों से विभूषित किया। तत्पश्चात् उत्तय दिशा के कदलीगृह में ले जाकर रत्नजड़ित सिंहासन पर बैठाया । वहां प्रभियोगिक देवों द्वारा गोशीर्ष चन्दन का काष्ठ मँगवाया । श्ररणी के दो खण्ड लेकर अग्नि प्रज्वलित कर होम करने के लिए गोशीर्ष काष्ठ के टुकड़ों से हवन किया। हवन की समाप्ति पर भस्मावशेष को वस्त्र - खण्ड में बांधकर दोनों के हाथों में बांध दिया । भगवान् के कान में 'तुम पर्वत तुल्य ग्रायुष्मान बनो' कहकर दो प्रस्तर गोलक ठोके । तदुपरान्त माता और बालक को शय्या पर सुलाकर मंगल गीत गाने लगीं । ( श्लोक १४९-१६०)
भगवान् के चरण-कमलों में जाने के लिए मानो इन्द्रासन कांप उठा । श्रवधिज्ञान से तीर्थङ्कर का जन्म अवगत कर शक्र ने सिंहासन का परित्याग किया। सात प्राठ कदम तीर्थङ्कर की ओर