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उठी।
के पश्चात् रक्तक्षरित नहीं हुआ । जातक का रंग था सूर्योदय कालीन पूर्व के आकाश-सा स्वणिम । उस समय अन्धकार को नष्ट करने वाला एक आलोक मुहर्त मात्र के लिए तीनों लोक में व्याप्त हो गया और एक मूहर्त के लिए नारकी जीव भी प्रानन्दित हए। ग्रह-समूह उस समय उच्च स्थान पर था, आकाश प्रसन्न था। मृदुमन्द वायु प्रवाहित हो रही थी। मनुष्यों ने प्रानन्दोत्सव मनाया। नभ से बरसा सुगन्धित जल। आकाश में हुमा दुन्दुभिनाद । हवा ने अपसारित कर दिया धूलि कणों को। पृथ्वी उच्छ्वसित हो
(श्लोक १३१-१३६) अधोलोक से भोगंकरा आदि प्राठ दिक्कुमारियां अवधिज्ञान से अर्हत् का जन्म अवगत कर वहां उपस्थित हई । उन्होंने जिन और जिन-माता को तीन बार प्रदक्षिणा देकर नमस्कार किया एवं अपने प्रागमन को ज्ञापित किया। साथ ही साथ यह भी कहा-'पाप भयभीत न हों।' तदुपरान्त उन्होंने ईशान कोण में जाकर वैक्रिय समुद्घात से संवर्त नामक वायु प्रवाहित कर सूतिकागृह के चारों ओर एक योजन पर्यन्त भूमि को कर्दम और कंकर रहित किया। तत्पश्चात् जिन भगवान् को नमस्कार कर उनके निकट बैठीं और परिवार के सदस्यों की भांति उनका गुणगान करने लगीं। (श्लोक १३७-१४०)
___ इसके बाद उर्वलोक से मेघंकरा आदि पाठ दिककुमारियां भी पूर्वानुरूप वहां पाई और जिन एवं जिनमाता को नमस्कार किया। उन्होंने मेघ का सर्जन कर सुगन्धित जल की वर्षा की और सूतिकागृह के चारों ओर एक योजन पर्यन्त धूल को नष्ट कर डाला । घुटनों तक पंचवर्णीय पुष्पों की वर्षा कर जिन भगवान् को नमस्कार किया और उनका गुणगान करते हुए यथास्थान जाकर खड़ी हो गई।
(श्लोक १४१-१४३) पूर्व रुचकाद्रि से नन्दोत्तरा आदि आठ दिक्कुमारियों ने पूर्वानुरूप आकर जिन और जिनमाता को नमस्कार किया और हाथ में दर्पण लेकर गीत गाने लगीं। दक्षिण रुचकाद्रि से समाहारा प्रादि पाठ दिक्कुमारियां भी पूर्वानुरूप प्राकर जिन और जिनमाता को नमस्कार कर दाहिने हाथ में स्वर्णकलश लेकर दक्षिण दिशा में खड़ी हो गई। पश्चिम रुचकाद्रि से इला मादि पाठ