________________
१८० ]
सहस्रार देवलोक में राजा पद्मसेन का जीव पूर्णायु भोगकर वैशाख शुक्ला द्वादशी को चन्द्र जब उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में अवस्थित था वहाँ से च्यवकर महारानी श्यामा देवी के गर्भ में प्रविष्ट हुआ । तीर्थंकर जन्म-सूचक चौदह महास्वप्नों को महारानी ने अपने मुख में प्रवेश करते देखा । गर्भकाल पूर्ण होने पर माघ शुक्ला तृतीया की मध्य रात्रि में चन्द्र जब उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में था महारानी ने एक पुत्र को जन्म दिया । उस समय सभी ग्रह अपने उच्च स्थान पर अवस्थित थे । उनका लांछन था शूकर ।
1
( श्लोक २५-२९ ) सभी दिशाओं से छप्पन दिक्कुमारियां आई और भृत्य की भांति तीर्थंकर एवं उनकी माता का सूतिका कार्य सम्पन्न किया । इन्द्र भी आए और जातक को मेरु पर्वत पर ले जाकर अतिपाण्डुकवला में रक्षित सिंहासन पर उन्हें गोद में लेकर बैठ गए । अच्युतादि तेसठ इन्द्रों ने तीर्थ से लाए जल से तेरहवें तीर्थंकर का स्नानाभिषेक किया। तब इन्द्र ने प्रभु को ईशानेन्द्र की गोद में बैठाकर मानो पर्वत शृंग से जल निकल रहा है इस प्रकार वृषभ शृंग से निकलते जल से उन्हें स्नान करवाया । तदुपरान्त देवदूष्य वस्त्र से जिस प्रकार रत्न को पोंछा जाता है वैसे ही प्रभु की स्नानसिक्त देह को पोंछ दिया । नन्दन वन से लाए गोशीर्ष चन्दन का उन्होंने प्रभु की देह पर लेपन किया । देखने से ऐसा लगा कि उनका शरीर देवदूष्य वस्त्र से लिपटा हुआ है । तत्पश्चात् उन्होंने दिव्यमाला, वस्त्र और अलंकार से उनकी पूजा कर दीप दिखाकर निम्नलिखित स्तुति का पाठ किया(श्लोक ३०-३६) 'मिथ्यात्व का अन्धकार जब चारों ओर व्याप्त हो गया है, शैव, संन्यासी जब राक्षस की भांति भयानक रूप से क्रुद्ध हो उठे हैं, प्रवंचना से ब्राह्मण जब गोयाले की तरह धूर्त हो उठे हैं, भालुओं की तरह कौलगण मण्डल बनाकर विचर रहे हैं, अन्य मिथ्यात्वी जब कि उल्लुओं की तरह चीत्कार कर रहे हैं, विवेकदृष्टि ऐन्द्रजालिक की तरह मिथ्यात्व के प्रभाव से विनष्टप्राय हो चुकी है, चारों ओर तत्त्वज्ञान प्रायः अवलुप्त है ऐसा दीर्घकाल जो कि रात्रि की तरह व्यतीत हुआ है, हे त्रिलोकनाथ, आपके आविर्भाव से सूर्योदय से जैसे प्रभात होता है वैसा ही सुप्रभात हो जाए । इतने दिनों तक संसार