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वे स्वजनों की रक्षा करने लगे। विभिन्न स्थानकों की उपासना कर अर्हत् भक्ति के कारण उन्होंने तीर्थङ्कर गोत्र कर्म उपार्जन किया। दीर्घ दिनों तक तपश्चरण कर आयु शेष होने पर मृत्यु प्राप्त कर वे सहस्रार देवलोक में महाऋद्धिशाली देवरूप में उत्पन्न हुए।
(श्लोक ३-१०) जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र के अलङ्कार तुल्य, मानो स्वर्ग का ही एक अंश धरती पर उतर आया हो ऐसा, काम्पिल्य नामक एक नगर था। इसके मन्दिर रात्रि में चन्द्रकान्त मणि पुत्तलिकाओं निःसृत जल में धारायन्त्र संलग्न गह से लगते थे। श्री देवी के गह में शोभित स्वर्ण-कमल की तरह यहां के हों के शिखर पर स्थित स्वर्ण-कलश किरणें विकीर्ण करते। इसके श्रेणीबद्ध हर्म्य और अट्टालिकाएँ विधाता निर्मित देवनगरी-सी लगतीं। (श्लोक ११-१४)
यहां के राजा का नाम था कीर्तिवर्मा । भाग्य पीडित लोगों के शरणागत होने पर वे कवच की तरह उनकी रक्षा करते थे। गंगाजल और उनकी कीर्ति का प्रवाह प्रतिस्पर्धवश ही मानो पृथ्वी को चारों ओर से आनन्दमय कर सागर में समा जाते थे। प्रार्थी और शत्रुओं से वे दूर नहीं भागते थे; किन्तु परस्त्री और निन्दा से सदैव दूर रहते थे। युद्ध में शत्रु उनके पराक्रम रूपी आलोक को सहन नहीं कर सकते थे कारण, वे पृथ्वी के सूर्य-तुल्य थे और शत्रुगण मानो अन्धकार से उद्भूत हुए हों। वटवृक्ष की छाया की तरह उनकी पद-छाया ने राजाओं द्वारा सेवित होने से नत होने के कारण कुब्जाकृति धारण कर रखी थी।
(श्लोक १५-१९) सूर्य की जिस प्रकार रात्रि है उसी प्रकार उनकी भी श्यामा नामक एक पत्नी थी। वह वंश के लिए श्री और अन्तःपुर के लिए अलंकार तूल्य थीं। वे जैसे साध्वी थीं वैसा ही था उनका रूप । मानो श्री देवी ने ही रूप परिग्रह किया है। मराली की तरह मन्दगति से वे चलती थीं मानो वे सर्वदा अपने पति के ध्यान में रत हों । मृत्युलोक में तो कोई भी मानवी उनके समतुल्य नहीं थी। अतः श्री देवी और इन्द्राणी उनकी सखी बनने की कामना करती थीं। दिन जिस प्रकार रात्रि का अनुसरण करता है उसी प्रकार जहां भी उनके चरण पड़ते वहीं सुख और आनन्द की धारा प्रवाहित हो जाती।
(श्लोक २०-२४)