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के वशीभूत होकर भीरु न बनें ।'
(श्लोक ९९-१०५) ___इस भाँति माता-पिता को समझाकर १८ लाख वर्षों के पश्चात् वे दीक्षा ग्रहण को उत्सुक हुए। सिंहासन कम्पित होने से तीर्थकर का दीक्षाकाल समुपस्थित जानकर ब्रह्मलोक से लोकान्तिक देव आए और त्रिलोकनाथ को तीन बार प्रदक्षिणा देकर बोले, हे भगवन, तीर्थ प्रवर्तन करें? ऐसा कहकर वे ब्रह्मलोक लोट गए। कल्याणकारी प्रभु ने एक वर्ष तक वर्षीदान दिया। वर्षाकाल शेष होने पर जैसे लोग इन्द्रोत्सव करते हैं उसी प्रकार वर्षीदान शेष होने पर इन्द्रों ने आकर प्रभु का दीक्षा महोत्सव सम्पन्न किया।
(श्लोक १०६-११४) तदुपरान्त देव असुर और मानव निर्मित सिंहासन शोभित पृथ्वी नामक शिविका पर उन्होंने आरोहण किया। राजहंस जिस प्रकार स्वर्ण-कमल पर आकर बैठ जाता है वैसे ही वे पाद-पीठ पर पाँव रखकर सिंहासन पर बैठ गए। इन्द्रों में किसी ने उनके सम्मुख स्व-अस्त्र आस्फालित किया, किसी ने दिव्य छत्र धारण किया, किसी ने चँवर बोजन किया, किसी ने पखा संचालित किया। कोई गुणगान करने लगा, कोई माल्य धारण करने लगा। इस भाँति देव असुर और मानवों से परिवृत्त होकर वे विहारगृह नामक श्रेष्ठ उद्यान में पहुंचे।
(श्लोक १११-११५) आम्र मंजरी के मकरन्द का पान कर कोकिल मन्द स्वर में कुहूरव कर रहे थे मानो भक्तिप्लुत हृदय हो उनका गुणगान कर रहे हों, पवन के आन्दोलन से अशोक वृक्ष पुष्प गिराकर जैसे उन्हें उपहार दिया, हिलते हुए चम्पक और अशोक के मधु झरने से ऐसा लगा मानो वे पाद-पूजा के लिए अर्घ दान कर रहे हों। लावलि पुष्पों का मधुपान कर उन्मत्त भ्रमरगण गुनगुन कर मानो उनका गुणगान करने लगा। पुष्पभार से अवनत बना कणिकार वक्ष मानो उन्हें वन्दना कर रहे हों । पुष्पालंकारों से सज्जित बासन्ती वृक्ष हाथ को तरह नवीन शाखा उद्गत कर मानो उनके सम्मुख जैसे आनन्द से नृत्य करने लगा। ऐसे द्वितीय वसन्त की तरह लता गुल्म और वृक्षों को नवीन शोभा प्रदान करते हुए प्रभु ने उस उद्यान में प्रवेश किया।
(श्लोक ११६-१२२) तदुपरान्त शिविका से उतकर उन्होंने माल्य अलंकार आदि