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[१६१ ने मेरे जन्म के समय जैसा उत्सव देखा था उसी प्रकार का मेरी दीक्षा, केवलज्ञान और मोक्ष-प्राप्ति का उत्सव देखेंगे।' (श्लोक ८३-८९)
यह सुनकर वसुपूज्य गद्गद् कण्ठ से बोले- 'पुत्र, मैं जानता तुम संसार-समुद्र को अतिक्रम करने को दृढ़ संकल्प हो । भव समुद्र के तट रूप तुमने इस जन्म को प्राप्त किया है-यह तो हम तीर्थंकर के जन्म सूचक महास्वप्नों से ही समझ गए थे। यह सत्य है कि तुम संसार-समुद्र को पार करोगे और तुम्हारी दीक्षा, केवलज्ञान एवं मोक्ष प्राप्ति के उत्सव अनुष्ठित होंगे। फिर भी इसके मध्यवर्ती समय में हम यह उत्सव देखना चाहते हैं। मुक्ति के लिए उद्यमी हमारे पूर्वजों ने भी यह उत्सव किया है। उदाहरणस्वरूप पिता के आग्रह से इक्ष्वाकु वंश के प्रतिष्ठाता भगवान् ऋषभदेव ने भी सुनन्दा, सुमंगला से विवाह किया था। पिता के आदेश से उन्होंने राज्य-भार ग्रहण किया था और सांसारिक सुख भोग कर यथा समय दीक्षा ग्रहण की थी। दीक्षा ग्रहण कर मुक्ति को भी प्राप्त किया था। तुम जैसे के लिए तो मुक्ति भी समीप के गाँव में जाने की तरह ही सुलभ है । अजित स्वामी से लेकर श्रेयांस स्वामी पर्यन्त सभी ने पिता के आदेश से विवाह किया और पृथ्वी पर शासन भी किया। फिर अंत में मुक्ति को भी प्राप्त किया। तुम भी ऐसा ही करो। तुम भी पूर्वजों की तरह विवाह और राज्य शासन कर बाद में दीक्षा लेकर निर्वाण प्राप्त करो।
(श्लोक ९०.९८) कुमार वासुपूज्य बोले-'पितृवर, अपने पूर्वजों का जीवन मुझे ज्ञात है; किन्तु संसार में दो व्यक्तियों का जीवन एक प्रकार का नहीं होता है चाहे वह एक ही परिवार का हो या भिन्न परिवार का। उनका भोग फलदाय कर्म अवशेष था अतः उन्होंने तीन ज्ञान के धारक होते हुए भी भोग के द्वारा उन कर्मों को क्षय किया; किंतु भोगफलदायी मेरे कोई भी कर्म अवशिष्ट नहीं है। इसीलिए मुक्ति के बाधक विवाह का आदेश मुझे नहीं दें । भावी तीर्थंकरों के मध्य भी मल्ली, नेमि और पाव ये तीन तीर्थंकर होंगे जो कि विवाह और राज्य-शासन न कर मुक्ति के लिए दीक्षा लेंगे। शेष तीर्थकर महावीर सामान्य भोग कर्म के लिए विवाह कर दीक्षा ग्रहण करेंगे, राज्य शासन नहीं करेंगे। कर्म भिन्नता के कारण तीर्थंकरों का पथ भी एक जैसा नहीं होता। ऐसा सोचकर आप मुझे आदेश दें । स्नेह