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मन और चारित्र शुद्ध था, समस्त कर्म क्षयकर मोक्ष को प्राप्त किए।
___ (श्लोक ८९९-९०६) (प्रथम सर्ग समाप्त)
द्वितीय सर्ग
वासुपूज्यचरितम् भगवान् वासुपूज्य जो कि सबके सब प्रकार से पूजनीय हैं, रक्षक हैं, जिनके चरण-नख इन्द्र और उपेन्द्रों के मुकुटों के अग्रभाग से घषित होते हैं उन्हें मैं वन्दना करता हं। मैं तीर्थंकरों के चरित वर्णन रूपी ध्यान में उनका चरित जो कि मंगलकारक हैं और निष्कलंकता में चन्द्र को भी अतिक्रम करता है अब वर्णन करता हूं।
(श्लोक १-२) पूष्करवर द्वीपार्द्ध के पूर्व विदेह में मंगलवती नामक विजय में पूर्व विदेह के अलंकार तुल्य रत्नसंचय नामक एक राजा राज्य करते थे। जो कि सर्व प्रकार से पद्मा अर्थात् लक्ष्मी की तरह समृद्धि संपन्न और चन्द्र की तरह प्रजाजनों को प्रिय थे। राजागण जिस प्रकार भक्ति से उनकी आज्ञा शिरोधार्य करते उसी प्रकार वे जिनवाणी को हृदय में धारण करते थे। सर्वगुण सम्पन्न उनमें ऐश्वर्य और यश इस प्रकार एक साथ वद्धित होते थे कि लगता ये यमज रूप में उत्पन्न हुए हैं। राजाओं की मुकूटमणि रूप वे पृथ्वी पर इस प्रकार शासन करते थे मानो वह परिखा परिवृत्त नगरी हो। भाग्य तो लक्ष्मी की तरह ही चंचल है, सौन्दर्य यौवन की तरह क्षणस्थाई, सत्कर्म पद्म-पत्र के जल की तरह अस्थिर और बन्धु-बान्धव पथ पर मिल जाने वाले पान्थ की तरह अल्प समय के लिए होते हैंइस प्रकार सतत चिन्तन करते हुए वे वैराग्य को प्राप्त हो गए।
(श्लोक ३-९) एक दिन उन्हीं महामना ने गुरु वज्रनाभ के चरणों में जाकर मुक्ति रूपी श्री की आविर्भाव सूचक दीक्षा ग्रहण कर ली। उन्होंने बहुविध स्थानक और अर्हत् भक्ति द्वारा तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जन किया। तदुपरान्त दीर्घ दिन पर्यन्त तलवार की धार की रक्षा से व्रत पालन कर आयु पूर्ण होने पर प्राणत नामक स्वर्ग में देव रूप में उत्पन्न हुए।
(श्लोक १०-१२)