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गए। यद्यपि वे विवेकी थे फिर भी अविवेकी की तरह उच्च-स्वर से क्रन्दन करते हुए अप्रतिम भ्रातृप्रेम के कारण इस भाँति विलाप करने लगे :
(श्लोक ८८४-८९१) भाई उठो, इस प्रकार क्यों सोए हो ? हे नरसिंह, अपने कार्य में इतना शैथिल्य क्यों ? समस्त राजा तुम्हें देखने के लिए दरवाजे पर खड़े हैं । इन दर्शन-पिपासूओं को दर्शन नहीं देना तुम्हारे लिए उचित नहीं है। भाई, कौतुक के लिए भी तुम्हारा इतनी देर तक चुप रहना उचित नहीं है । तुम्हारे कण्ठ-स्वर का माधुर्य सुने बिना मेरा हृदय उत्कंठित हो रहा है। सर्वदा उत्साही और गुरुजनों के प्रति श्रद्धावान रहने वाले तुम न कभी निद्रावश हुए, न कभी मेरी अवहेलना की। आज तुम्हारे इस निष्ठुर व्यवहार से मैं मर्माहत हो हो गया हूं। अब मेरा क्या होगा ?' कहते-कहते अचल मूच्छित होकर जमीन पर गिर पड़े। एक मुहूर्त के पश्चात् जब मूर्छा भग हुई तो वे उठ बैठे और वासुदेव को गोद में लेकर भाई-भाई करते हुए क्रन्दन करने लगे । अन्ततः वयोवृद्धों के उपदेश से मोह कम होने पर उन्होंने भाई का अग्नि संस्कार किया। (श्लोक ८९२-८९८)
भाई की मृत्यु के पश्चात् बलदेव अचल उन्हें स्मरण करते हुए श्रावक के मेघ की तरह अश्रु विसर्जन करते रहते । मानो उद्यान अरण्य हो, गृह श्मशान हो, सरोवर गृह-प्रणाली हो, आत्मीय परिजन शत्रु हों इस प्रकार जलहीन मछली की भाँति उन्हें कहीं कोई आनन्द नहीं था। भगवान् श्रेयांसनाथ के उपदेशों को स्मरण कर, संसार की अनित्यता को दृष्टिगत करते हुए इन्द्रिय-विषयों से विरक्त अचल ने लोगों से अनुरुद्ध होकर कुछ दिन गहवास किया। एक दिन वे आचार्य धर्मघोष सूरि के दर्शन को गए। वहाँ अर्हत वाणी-सी उनकी देशना सूनकर उनका संसार-वैराग्य और उत्कट हो उठा। वे शुद्ध मन से उनके चरणों में दीक्षित हो गए। जो महान् होते हैं वे संकल्प स्थिर होते ही उसे कार्यान्वित करते हैं। मूल और उत्तर गुणों को पूर्णतः पालन कर धर्मपरायण उन्होंने समस्त परिस्थितियों में समभाव रखकर परिषहों को सहन करते हुए वायु की तरह अप्रतिबद्ध भाव से लक्ष्य के प्रति सर्प-सी दृष्टि रखते हुए उन्होंने कुछ मास तक ग्राम, खान, नगरादि में विचरण किया। अन्ततः अपनी ८५ लाख वर्ष की आयु पूर्ण कर अचलकुमार जिनका