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त्रिपृष्ठकुमार ने अप्रतिरोध्य वरुण वाण को धनुष पर चढ़ाकर फेंका । पल भर में वासुदेव की इच्छा की तरह आकाश में मेघ व्याप्त होकर आकाश को और अश्वग्रीव के मुख को जैसे काला कर डाला | उस मेघ से वर्षाकाल की तरह जल बरस कर दावानल की अग्निज्वाला को पूर्णतः बुझा डाला । अपने समस्त अस्त्रों को इस प्रकार वासुदेव के हाथों तृण की तरह नष्ट होते देखकर प्रतिवासुदेव ने अव्यर्थ एवं विनाशकारी चक्र को स्मरण किया । चक्र की खील के मध्य भाग से निकलतो सहस्र - सहस्र ज्वाला से मानो उसे सूर्य के रथ से खोलकर लाया गया हो, या यम के कुण्डल को जोर से छीनकर लाया गया हो, तक्षक को चक्राकार किया गया हो ऐसा घण्टिकायुक्त वह चक्र स्मरण मात्र से ही खेचरों को भयभीत एवं संत्रस्त करता हुआ उसके पास आकर उपस्थित हो गया । उस चक्र को ग्रहण कर अश्वग्रीव त्रिपृष्ठकुमार को बोला - 'तू अभी बालक है । तेरी हत्या करने से मुझे भ्रूण हत्या का पाप लगेगा अतः तू युद्ध क्षेत्र से चला जा - तुझ पर दया आ रही है । देख मेरा यह अस्त्र इन्द्र के बज्र की तरह अमोघ है यह कभी व्यर्थ नहीं होता। यदि मैं इसे निक्षेप करू तो तेरी मृत्यु अवश्य होगी । इसका अन्यथा नहीं है इसलिए क्षत्रियों का अभिमान परित्याग कर और मेरी आज्ञा स्वीकार कर । तू अभी बालक है । बालकोचित औद्धत्य रूप तेरे पूर्वकृत दुर्व्यवहारों को मैं क्षमा करता हूं । जा अयाचित भाव से तुझे प्राण भिक्षा दे रहा हूं ।' ( श्लोक ७०२-७१९ )
अश्वग्रीव की बात सुनकर त्रिपृष्ठकुमार हँसते हुए बोले'अश्वग्रीव, तुम वृद्ध हो गए हो, नहीं तो उन्मत की भांति ऐसा प्रलाप नहीं बकते । सिंह शावक वृहदाकार हाथी को देखकर कभी भागता नहीं । वृहद् सर्प को देखकर क्या गरुड़ शावक कभी पलायन करता है ? बाल सूर्य सांध्य निशाचर को देखकर क्या कभी भयभीत होता है ? बालक होते हुए भी तुम्हें देखकर मैं क्यों पलायन करूँगा ? तुमने जितने भी अस्त्र मुझ पर निक्षेप किए हैं उसकी शक्ति तो तुमने देख ही ली है ? अब इस चक्र की शक्ति भी देख लो। बिना देखे ही क्यों अहंकार कर रहे हो ?' (श्लोक ७२० - ७२३) यह सुनकर अश्वग्रीव ने उस भयंकर चक्र को लेकर समुद्र में बड़वाल की तरह आकाश में मस्तक के ऊपर घुमाया । बहुत देर