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उनके बताए किसी भी पात्र को उपयुक्त नहीं समझा । तब उन्होंने नैमित्तिक को बुलवाया और उपयुक्त पात्र के विषय में पूछा । नैमित्तिक सम्भिन्नस्रोत ने उनसे कहा-राजा प्रजापति के पुत्र त्रिपृष्ठ आपकी कन्या के उपयुक्त वर हैं। वे प्रथम वासूदेव और भरतवर्ष के अर्द्धखण्ड के अधीश्वर होंगे व आपको विद्याधरों की उभय श्रेणी के ऊपर आधिपत्य देंगे । नैमित्तिक की बात से आनंदित होकर उन्होंने मुझे यहां भेजा है। देव, क्षिपृष्ठ के लिए आप उसे ग्रहण करें।'
__(श्लोक ४५९-४६६) बुद्धिमानों में अग्रगण्य राजा प्रजापति ने सहर्ष यह स्वीकार कर लिया और उपयुक्त उपहार देकर उसे विदा किया।
(श्लोक ४६७) ___ अश्वग्रीव के भय से ज्वलनजटी कन्या के विवाह के लिए प्रजापति के नगर में आ गए। अपने विद्याधर सामन्त, मन्त्री, सैन्य और यान सहित वे वेला भूमि पर समुद्र-से नगर प्रान्त पर अवस्थित हो गए। मन्त्री और परिषद सहित प्रजापति उनसे मिलने आए। कारण, अतिथि सर्वमान्य होते हैं। मैत्री भावापन्न दोनों राजा सह दोनों सैन्यदलों का मिलन गङ्गा-यमुना के मिलन की तरह लग रहा था। समान मर्यादा सम्पन्न होने से हाथी पर चढ़कर सामानिक देवों की तरह दोनों ने एक दूसरे का आलिंगन किया । चन्द्र-सूर्य की तरह दोनों राजाओं के मिलन से वह दिन प्रतिपदा-सा लगने लगा। समुद्र ने जिस प्रकार मैनाक को स्थान दिया था उसी प्रकार राजा प्रजापति ने विद्याधरराज को स्थान दिया। वहां विद्याधरों ने विद्या के प्रभाव से विविध प्रासाद सहित जैसे मानो द्वितीय पोतनपुर हो ऐसी नगरी निर्मित की। ज्वलनजटी ने उस नगरी के प्रमुख प्रासाद में निवास किया। उस प्रासाद में मेरु के जैसे सूर्य है वैसे ही दिव्य केतन था। सामन्त, मन्त्री, सेनापति आदि जैसे देव-विमानों में निवास करते हैं उसी प्रकार योग्य प्रासादों में रहने
(श्लोक ४६८-४७७) विद्याधरराज से विदा लेकर राजा प्रजापति समुद्र जैसे वेला भूमि से लौट जाता है वैसे ही अपने आवास को लौट गए। तदुपरान्त प्रजापति ने विद्याधरराज को खाद्य गन्ध द्रव्य एवं अलङ्कारादि उपहार भेजे। विवाह के लिए दोनों ने रत्नमय सुन्दर
लगे।