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१२८] की तरह है। उनके ज्योतिर्माला नामक एक देवोपम कन्या है जो कि सौन्दर्य और कमनीयता की मानो निधान है। मेघ के साथ विद्युत् की तरह जो आकाश को आलोकित करे ऐसी राजकन्या स्वयंप्रभा राजपुत्र विद्वत्प्रभ के लिए उपयुक्त है और ज्योतिर्माला युवराज अर्ककीति के उपयुक्त है। दोनों राजकन्याओं के आदानप्रदान का विवाहोत्सव अनुष्ठित होना चाहिए।' (श्लोक ४४१-४४८)
तब श्रुतसागर बोले-'आपकी यह कन्या रत्नतुल्य है। श्री की तरह इस रत्न को कौन प्राप्त करना नहीं चाहेगा ? अतः विद्याधर राजकुमारों के साथ कोई पक्षपात न कर एक स्वयंवर का आयोजन करना उचित है। ऐसा नहीं होने पर यदि यह कन्या आप किसी को देना चाहेंगे तो विरोध हो सकता है। वैसा क्यों करें ?
(श्लोक ४४९-४५१) इस प्रकार सभी मन्त्रियों की बात सुनकर उनको विदा कर राजा ने सम्भिन्नस्रोत नामक एक नैमित्तिक को बुलवाया और कहा-'मैं अपनी कन्या अश्वग्रीव को दूं या किसी किसी विद्याधर कुमार को या इसके लिए स्वयंवर का आयोजन करूँ ?' नैमित्तिक बोला-'मैंने मुनियों से सुना है कि भरत द्वारा पूछे जाने पर तीर्थंकर ऋषभदेव ने कहा था-इस भरत क्षेत्र में अवसर्पिणी काल में मेरी तरह तेइस और तीर्थङ्कर होंगे और तुम्हारी तरह और ग्यारह चक्रवर्ती होंगे। अर्द्ध भरत क्षेत्र के अधिपति नौ बलदेव और नौ वासुदेव एवं नौ प्रतिवासुदेव होंगे। इनमें त्रिपृष्ठ अश्वग्रीव की हत्या कर विद्याधर नगरी सहित त्रिखण्ड भरत क्षेत्र पर आधिपत्य विस्तार करेगा, वही आपको विद्याधरों का इन्द्रत्व देंगे। अतः राजकन्या उन्हीं को दें। उनके जैसा बलशाली अभी पृथ्वी पर और कोई नहीं है।'
(श्लोक ४५२-४५८) आनन्दित होकर राजा ने नैमित्तिक को धनदान से पुरस्कृत कर विदा किया और राजा प्रजापति के पास मरीचि नामक दूत को भेजा। दूत प्रजापति के पास गया और उन्हें नमस्कार कर स्व-परिचय देकर विनीत भाव से बोला-'विद्याधरराज, ज्वलनजटी के स्वयंप्रभा नामक एक अपूर्व सुन्दरी कन्या है। विशेष रुचि सम्पन्न कवि की तरह बहुत दिनों से वे कन्या के लिए उपयुक्त पात्र की चिन्ता में निमग्न थे। मन्त्रियों द्वारा निर्देशित होने पर उन्होंने