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[१२१ ऐसा सोचकर राजा ने मंत्रियों द्वारा दूत को पुनः राज प्रासाद में बुलवाया और स्नेहयुक्त मधुर वचनों से प्रसन्न किया। करबद्ध होकर उसे विशेष सम्मान दिया मानो राजपूत्रों द्वारा किए गए अपमान के कलंक को धो डालने के लिए वे जल-प्रवाह उन्मुक्त कर रहे हों। हस्ती को प्रसन्न करने के लिए जैसे शैत्य-प्रयोग किया जाता है उसी प्रकार उसके क्रोध की शान्ति के लिए उसे चौगुना बहुमूल्य उपहार दिया और बोले - 'नव यौवन के उन्माद में आप तो जानते ही हैं राजपुत्र साधारण जनता एवं सम्मान्य व्यक्तियों से दुर्व्यवहार कर बैठते हैं। प्रभु का मेरे प्रति विशेष अनुग्रह होने के कारण मेरे पूत्र वश नहीं मानने वाले वृषभ की तरह उच्छखल हो गए हैं। बन्धु, यद्यपि उन्होंने आपके साथ अत्यन्त दुर्व्यवहार किया है फिर भी आप उसे एक दुःस्वप्न की भाँति भूल जाएँ। हम दोनों के मध्य सहोदर की तरह जो असीम बन्धुत्व है वह क्या एक मुहूर्त में टूट जाएगा? आप तो मेरे मनोभावों को भली-भाँति जानते ही हैं । हे महामना, कुमारों द्वारा कृत दुर्व्यवहार की बात आप महाराज अश्वग्रीव को मत कहिएगा। प्रेम सम्बन्ध को अक्षुण्ण रखने का यही तो परीक्षाकाल है।' (श्लोक ३२९-३३६)
___इस प्रकार मधुर व्यवहार की अमृत वर्षा से चण्डवेग के क्रोध की अग्नि शान्त हुई। वह भी स्नेह-सिक्त कण्ठ से बोला-'आपके साथ चिरकाल से स्नेह-सम्बन्ध हैं इसलिए मैं क्रुद्ध नहीं हूं। हे राजन, क्षमा के लिए अब क्या है ? आपके पुत्र मेरे पुत्र जैसे ही हैं। पुत्रकृत अपराध को उसके पालक को ही कहा जाता है राज-दरबार में नहीं । साधारणों का यही नियम है। आपके पूत्रों के इस व्यवहार की बात मैं राजा को नहीं कहूंगा। हाथी के मुह में जल डाला ही जाता है, बाहर नहीं निकाला जाता। राजन्, आप निश्चिन्त हो जाइए । अब मैं जा रहा हूं, विदा कीजिए। मेरे मन में आपके प्रति कोई दुरभिसन्धि नहीं है।'
(श्लोक ३३७-३४१) दूत की यह बात सुनकर राजा ने सगे भाई की तरह उसे आलिङ्गन में ले लिया और हाथ जोड़कर विदा किया।
(श्लोक ३४२) कुछ दिनों में ही दूत अश्वग्रीव के सम्मुख उपस्थित हुआ; किन्तु उस पर आक्रमण की बात कंचुकी की तरह पहले ही पहुंच