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दरवाजे, प्रणाली व छिद्रों को बन्द कर दिया जाए तो संवर द्वारा अलंकृत आत्मा में कर्म द्रव्य प्रविष्ट नहीं होंगे। (श्लोक ९८-१०२) ___ 'आश्रव निरोध का उपाय ही संवर है । संवर के आदि क्षमा अनेक भेद हैं। गुणस्थानों पर चढ़ते हुए-जो-जो आश्रव द्वार निरुद्ध होते हैं उसी-उसी नाम के संवर प्राप्त होते हैं । अविरत सम्यग् दृष्टि में मिथ्यात्व-निरोध से सम्यक्त्व रूप संवर और देश विरति आदि गुणस्थान में अविरति रूप संवर प्राप्त होता है । अप्रमत्तादि गुणस्थान में प्रमाद का संवरण होता है । उपशान्त मोह और क्षीण मोह गुणस्थान में कषायों का निवारण होता है और अयोगी केवली नामक चतुर्दश गुणस्थान में पूर्ण रूप से योग संवर होता है । जिस प्रकार समुद्रगामी वणिक छिद्र रहित जहाज से समुद्र अतिक्रम करता है उसी प्रकार बुद्धिमान व्यक्ति पूर्ण संवरवान होकर संसार-समुद्र को अतिक्रम कर सुखी होता है।'
(श्लोक १०३-१०७) भगवान् की उपरोक्त देशना सुनकर बहुत से व्यक्तियों ने सर्व विरति रूप श्रवण धर्म और अनेकों ने देश विरति रूप श्रावक धर्म ग्रहण कर लिया। प्रभु के आनन्द आदि ८१ गणधर हुए। भगवान की देशना के पश्चात् आनन्द गणधर ने देशना दी। आनन्द स्वामी के प्रवचन के पश्चात् देवेन्द्र, असुरेन्द्र व नरेन्द्र त्रिलोकपति को नमस्कार कर स्व-स्व निवास स्थान को चले गए।'
(श्लोक १०८-११०) भगवान् के तीर्थ में त्रिनेत्र चतुर्मुख कमलासन श्वेतवर्ण ब्रह्म नामक यक्ष उत्पन्न हुए। उनके आठ हाथ थे । दाहिनी ओर के तीन हाथों में क्रमशः विजोरा, हथौड़ी, अंकुश था और चौथा अभयमुद्रा में था। बायीं ओर के चार हाथों में क्रमशः नकुल, गदा, अंकुश
और अक्षमाला थी। इसी प्रकार श्यामवर्णा मेघवाहना अशोका नामक यक्षिणी उत्पन्न हुई। उनके दाहिनी ओर के एक हाथ में पाश और अन्य हाथ वरद्-मुद्रा में था । बायीं ओर के एक हाथ में फल और दूसरे में अंकुश था। ये दशम तीर्थंकर के शासन देव व देवी बने। इनके द्वारा सेवित प्रभु शीतलनाथ ने तीन मास कम पच्चीस हजार पूर्व तक प्रव्रजन किया । (श्लोक १११-११५)
भगवान् के तीर्थ में १००००० साधु, १००००६ साध्वियाँ, १४०० पूर्वधारी,३२०० अवधिज्ञानी,३५०० मनःपर्यवज्ञानी, ३०००