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की रक्षा करते हैं। विनय के कारण ही उन्होंने पैरों के जूते उतार दिए। छड़ीदार द्वारा प्रदत्त हाथ के सहारे की भी उपेक्षा की अर्थात् उसे ग्रहण नहीं किया। फिर नगर के नर-नारियों के साथ पैदल चलकर समोसरण के निकट पहुंचे। तदुपरान्त मकर संक्रान्ति के दिन सूर्य जैसे प्राकाश के प्रांगण में प्रवेश करता है उसी प्रकार उत्तरी द्वार से उन्होंने समोसरण में प्रवेश किया। वहाँ जगद्गुरु को तीन प्रदक्षिणा देकर और नमस्कार कर अमृत जैसी मधुर वाणी में स्तुति करने लगे
(श्लोक ३९९-४१७) हे प्रभो, मिथ्यादष्टि वाले के लिए कल्पान्तकारी सूर्य की तरह और सम्यक् दृष्टि वाले के लिए अमृत के अंजन तुल्य और तीर्थकरत्व की लक्ष्मी के लिए तिलक रूप यह चक्र आपके सम्मुख अवस्थित है। इस जगत के आप अकेले ही स्वामी हैं। यह कहने के लिए इन्द्र ने मानो इन्द्रध्वजा के बहाने अपनी तर्जनी उत्तोलित कर रखी है। जब आप पाँव रखते हैं तो सुर और असुर कमल रखने के बहाने कमल पर निवास करने वाली लक्ष्मी का विस्तार करते हैं।
(श्लोक ४१८-४२०) मुझे लगता है-दान, शील, तप और भाव इन चारों प्रकारों के धर्म को एक साथ बोलने के लिए पाप चतुर्मुख हो गए हैं। त्रिलोक को त्रिदोष से बचाने के लिए आप जो प्रयत्न कर रहे हैं उसी लिए देवताओं ने मानो उन तीन प्राकारों की रचना की है। आप जब धरती पर चलते हैं तो काँटे अधोमुख हो जाते हैं; किन्तु इसमें प्राश्चर्य क्या है? कारण जब सूर्य उदित होता है तब अन्धकार सम्मुख नहीं आता, आ ही नहीं सकता। केश, रोएँ, नख, दाढ़ी, मूछ बढ़ते नहीं। वे जैसे होते हैं वैसे ही रहते हैं। यह बाह्म योग महिमा तीर्थंकर के अतिरिक्त और किसी को प्राप्त नहीं होती। शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श नामक पाँच इन्दियों के विषय आपके सम्मुख ताकिकों की तरह प्रतिकल नहीं बनते । समस्त ऋतुएं असमय में कामदेव को सहायता देने के भय से एक साथ प्रापके चरणों की सेवा करती है। भविष्य में आपके चरणस्पर्श होने वाले हैं यह सोचकर देव सुगन्धित जल और दिव्य पुष्पों की वृष्टि कर पृथ्वी की पूजा करते हैं। हे जगत्पूज्य, जब कि पक्षी भी चारों ओर से आपकी परिक्रमा देते हैं, आपके विपरीत दिशा में नहीं जाते तब मनुष्य होकर भी जो आपके प्रति विमुख