________________
[81
होकर रहते हैं वे जगत में बड़ा कहलाते हुए विचरण करते हैं उनकी गति क्या होगी ? जबकि आपके समीप आकर एकेन्द्रिय पवन भी प्रतिकूलता का परित्याग करते हैं तब पंचेन्द्रिय दुःशील कैसे हो सकता है ? आपके माहात्म्य से चमत्कार प्राप्त वृक्ष भी जब माथा झुका कर आपको नमस्कार करते हैं जिससे उनके मस्तक कृतार्थ होते हैं तब जिनके मस्तक आपके सम्मुख नहीं झुकते उन मिथ्यात्वियों के मस्तक अकृतार्थ और व्यर्थ ही होते हैं । कम से कम करोड़ों सुरासुर आपकी सेवा करते हैं कारण मूर्ख और आलस्यपरायण व्यक्ति भी भाग्योदय से प्राप्त अर्थ के प्रति उदासीनता नहीं दिखाते ।
।
(श्लोक ४२१-४३१)
इस भांति भगवान् की स्तुति कर विनय सहित पीछे हटकर चक्रवर्ती सगर इन्द्र के पीछे जा बैठे । समवसरण के अन्तिम उच्चगढ़ के भीतर भक्ति के द्वारा मानो ध्यानावस्थित हों इस प्रकार चतुविध संघ प्रा बैठा । द्वितीय गढ़ में सर्प, नकुल आदि तिर्यंच जाति के जीव वैर परित्याग कर परस्पर मित्र हों इस भांति बैठ गए । तृतीय गढ़ में प्रभु की सेवा के लिए आए सुरासुर और मनुष्यों के वाहन थे । सबके बैठ जाने के पश्चात् एक योजन पर्यन्त सुना जा सके और सभी भाषाओं में समझा जा सके ऐसी मधुर वाणी से भगवान् अजितनाथ स्वामी ने धर्मदेशना देनी प्रारम्भ की( श्लोक ४३२-४३६)
कर्म के प्रभाव से
ग्रह, इन मुग्धबुद्धि मनुष्यों को धिक्कार है जो कांच को वैदूर्यमणि और प्रसार संसार को सारवान समझते हैं । प्रति क्षण बद्ध कर्मों से प्राणियों के लिए संसार इस प्रकार बढ़ता जाता है, जिस प्रकार दोहद से वृक्ष पुष्पान्वित होता है। ही संसार का प्रभाव होता है अतः विद्वानों को सर्वदा प्रयत्न करना चाहिए । शुभ ध्यान से कर्म का नाश होता है । वह ध्यान आज्ञा, अपाय, विपाक और संस्थान विचय नामक चार प्रकार का है । ( श्लोक ४३७ - ४४०)
कर्मनाश के लिए
(१) आज्ञा विचय - प्राप्त या सर्वज्ञों के कथन को श्राज्ञा बोला जाता है । श्राज्ञा दो प्रकार की है । श्रागम श्राज्ञा और हेतुबाद आज्ञा । जिस पदार्थ का प्रतिपादन होता है उसे आगम प्राज्ञा कहा जाता है । प्रमारण की चर्चा से पदार्थ का जो प्रतिपादन किया