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है ? क्रिया की अधिकता से प्राप इस भाँति प्रयत्न में लग्न हैं कि इच्छा नहीं करने पर भी लक्ष्मी आपका ही आश्रय लेती हैं । मैत्री के पवित्र पात्र रूप प्रमोदशाली श्रौर कृपा एवं उपेक्षाकारियों के मध्य मुख्य हे योगात्मा, मैं प्रापको नमस्कार करता हूं ।
( श्लोक ३९० - ३९८ ) उधर उद्यानपाल ने सगर चक्रवर्ती के निकट जाकर निवेदन किया कि उद्यान में भगवान अजितनाथ स्वामी का समोसरण लगा है । प्रभु के समोसरण को सुनकर सगर जितने श्रानन्दित हुए उतने चक्र प्राप्ति के संवाद से भी नहीं हुए । प्रानन्दमना सगर चक्रवर्ती ने उद्यान पालक को साढ़ बारह कोटि सुवर्ण मुद्राएँ पुरस्कार में दीं । फिर स्नान, प्रायश्चित्त श्रौर कौतुक मङ्गलादि कर इन्द्र की तरह उदार प्राकृतिमय रत्नाभरण धारण कर स्कन्धों पर दृढ़ता से हाथ रख हाथों से अंकुश को नचाते हुए सगर राजा उत्तम हस्ती के अग्रासन पर बैठे । हस्ती कुम्भ से जिनका आधा शरीर प्रवृत हो गया है ऐसे चत्री अर्द्ध - उदित सूर्य से शोभित हो रहे थे । शख और तूर्य निनादों के दिशाओं में व्याप्त हो जाने पर सगर राजा के सैनिक उसी प्रकार एकत्र हो गए जिस प्रकार सुघोषादि घण्टों के बजने पर देव एकत्र हो जाते हैं । उस समय हजार-हजार मुकुटधारी राजानों के परिवार से परिवृत चक्री ऐसे लग रहे थे मानो उन्होंने अनेक रूप धारण कर रखे हों । मस्तक पर अभिषिक्त हुए राजानों में मुकुट के समान चक्री मस्तक पर प्रकाश गङ्गा के आवर्त्त का भ्रम पैदा करने वाले श्वेत छत्र से सुशोभित थे । दोनों श्रोर आन्दोलित चँवर से वे इस प्रकार शोभा पा रहे थे जिस प्रकार दोनों ओर के चन्द्रमानों से मेरुपर्वत शोभा पाता है । मानो स्वर्ण पंख युक्त पंक्षी हों ऐसे स्वर्ण कवच युक्त अश्वों से, जैसे पाल चढ़ाए हुए कूप स्तम्भ युक्त जहाज हों ऐसे उच्च ध्वज-दण्ड शोभित रथों से, मानो निर्भर पर्वत हों ऐसे मद भरते हस्तियों से, मानों सर्प सहित सिन्धु की तरंग हो ऐसे ऊँचे प्रस्त्रधारी पैदल सेना से पृथ्वी को चारों ओर से आच्छादित करता हुआ सगर चक्रवर्ती सहस्राम्रवन नामक उपवन के समीप आए। फिर महामुनि जिस प्रकार मान से उतरते हैं उसी प्रकार राजा सगर उद्यान द्वार की स्वर्णवेदी पर हाथी से उतरे । अपने छत्र चामरादि राजचिह्नों का वहीं परित्याग कर दिया । कारण विनयी पुरुष इसी प्रकार मर्यादा
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