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कर ईशान कोण में अनुक्रम से बैठ गए। (श्लोक ३७१-३८२)
उस समय इन्द्र की देह भक्ति से रोमांचित हो उठी। वे पुनः हाथ जोड़कर नमस्कार कर इस प्रकार स्तुति करने लगे
हे नाथ, तीर्थङ्कर नाम कर्म के कारण सकल के अभिमुख अर्थात् अग्रणी और सर्वदा सम्मुख अवस्थान कर पाप अनुकल होकर समस्त प्रजा को आनन्दित करते हैं। आपके एक योजन विस्तृत धर्म-देशना के समोसरण में कोटि-कोटि तियंच, मनुष्य
और देव अवस्थित हो सकते हैं। एक भाषा में बोला हुआ; किन्तु प्रत्येक को अपनी-अपनी भाषा में बोध-गम्य, सबको प्रिय और धर्मबोध देने वाले आपके वाक्य भी तीर्थङ्कर नाम कर्म के लिए ही हैं ।
आपकी विहार भूमि के चारों ओर एक सौ पच्चीस योजन पर्यन्त पूर्वागत रोगरूपी मेघ आपके विहार रूपी पवन से अनायास ही नष्ट हो जाते हैं। न्यायपरायण राजानों के द्वारा विनष्ट अनीति की तरह पाप जहां भी विहार करते हैं वहां चहे, टिड्डियां, शुक आदि पक्षियों के उद्भव रूप दुभिक्ष आदि विनष्ट हो जाते हैं। प्रापकी कृपा रूप पुष्करावर्त वर्षा से पृथ्वी पर स्त्री, क्षेत्र और द्रव्यादि-जन्य उत्पन्न वैराग्नि भी शान्त हो जाती है।
(श्लोक ३८३-३८९) हे नाथ, अकल्याण को विनष्ट करने के लिए ढिंढोरे के समान आपका प्रभाव पृथ्वी पर भ्रमण करता है । इससे मनुष्य लोक के शत्रु महामारी आदि रोग उत्पन्न नहीं होते। विश्व-वत्सल और लोक के मनोरथ पूर्ण करने वाले आपके विचरण करते रहने से उत्पातकारी अतिवृष्टि और अनावृष्टि नहीं होती। आपके प्रभाव के सिंहनाद से हस्तियों की तरह स्वराज्य और परराज्य सम्बन्धित क्षुद्र उपद्रव तो उसी मुहूत्त में नष्ट हो जाते हैं। सब प्रकार से विलक्षण प्रभाव सम्पन्न और जंगम कल्पवृक्ष सम आप जहाँ जाते हैं वहां दुभिक्ष हो तो दूर हो जाता है। आपके मस्तक के पीछे जो भामण्डल है वह सूर्यतेज को भी पराभव करता है। इसीलिए वह पिण्डाकार प्रतीत होता है ताकि आपकी देह मनुष्य के लिए दूरालोक्य न हो। हे भगवन्, घाती कर्मों के क्षय हो जाने से आपके इस योग साम्राज्य की महिमा-विश्व-विश्रत हो गयी है यह बात किसको
आश्चर्यजनक नहीं लगती ? आपके अलावा कौन अनन्त कर्म रूपी तृण-समूह को समस्त प्रकार से जड़ से उखाड़कर भष्म कर सकता