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________________ 177 चक्रवाक की तरह लग रहे थे। प्रत्येक दरवाजे पर स्वर्ण-कमलों से सुशोभित स्वच्छ और मधुर जल से भरे मङ्गल कलश-सी एकएक वापी का निर्माण किया। प्रत्येक दरवाजे पर देवों ने सोने की धूपदानी रखी। वे धुए के कारण ऐसी लग रही थीं मानो मरकतमणियों के तोरण विस्तृत कर रही हों। प्रथम प्राकार के मध्य ईशानकोण में देवों ने प्रभु के लिए एक देवछन्द निर्मित किया । उस प्राकार के मध्य व्यन्तर देवतापों ने एक कोश चौदह सौ धनुष ऊँचे चैत्य वृक्ष का निर्माण किया। व्यन्तरों ने ही उसके नीचे प्रभु के बैठने के लिए सिंहासन, देवछन्दक, दो चंबर और छत्रत्रय का निर्माण किया। इस भांति देवताओं ने समस्त विपत्ति को हरने वाले संसार परितापित पुरुषों के लिए प्राश्रय रूप भव्य समोसरण की रचना की। (श्लोक ३५५-३७०) तदुपरान्त चारणों की तरह जय-जय शब्द करते हुए देवताओं द्वारा परिवृत बने, देवताओं द्वारा ही निर्मित नवीन सुवर्ण कमलों पर अनुक्रम से चरण रखते हुए प्रभु पूर्व द्वार से प्रविष्ट होकर चैत्य वृक्ष की प्रदक्षिणा की। कारण, महान् पुरुष भी प्रावश्यक विधि का उल्लंघन नहीं करते। फिर 'तीर्थाय नमः' कहते हुए तीर्थ को नमस्कार कर पूर्वाभिमुख होकर सिंहासन के मध्य भाग में बैठ गए। उसी समय अवशिष्ट कर्म को करने के अधिकारी व्यन्तर देवों ने अन्य तीन और प्रभु के प्रतिबिम्ब का निर्माण किया। स्वामी के प्रभाव से वे प्रतिबिम्ब प्रभु के अनुरूप ही बने । अन्यथा वे प्रभु का प्रतिबिम्ब तैयार करने में समर्थ नहीं थे। उसी समय पीछे की ओर प्रभा-मण्डल, सम्मुख धर्मचक्र और इन्द्रध्वजा एवं प्राकाश में दुदुभिनाद प्रकट हुप्रा । इसके बाद साधू-साध्वी और वैमानिक देवताओं की देवियां रूप तीन पर्षदा ने पूर्वद्वार से प्रवेश कर प्रभु को तीन प्रदक्षिणा दी एवं प्रणाम कर अग्निकोण में पाए । प्रागे साधु बैठे, उनके पीछे साध्वियां खड़ी हो गयीं। भुवनपति, ज्योतिष्क और व्यन्तर देवियों ने दक्षिण द्वार से प्रविष्ट होकर प्रभु को प्रदक्षिणा दी, नमस्कार किया और अनुक्रम से नैऋत्य कोण में खड़ी हो गयीं। भुवनपति, व्यन्तर और ज्योतिष्क देव ने पश्चिम दिशा से प्रविष्ट होकर प्रभु को प्रदक्षिणा दी, नमस्कार किया और अनुक्रम से वायव्य कोण में बैठ गए । इन्द्र सहित वैमानिक देव ने उत्तर द्वार से प्रविष्ट होकर प्रभु को प्रदक्षिणा दी. और नमस्कार
SR No.090514
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charitra Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGanesh Lalwani, Rajkumari Bengani
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year1991
Total Pages198
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, History, Story, & Biography
File Size16 MB
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