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उज्ज्वल हो जाता है उसी प्रकार तपस्या से अधिक कान्तिसम्पन्न, क्यारियों से घिरे सुन्दर वृक्ष की तरह तीन गुप्तियों से सुशोभित, पंचशरधारी कामदेव की तरह पंच समितियों को धारण करने वाले आज्ञा, अपाय, विपाक, संस्थानों का चिन्तन करने से चार प्रकार के ध्येय का ध्यान करने वाले और ध्येय रूप ऐसे प्रभु प्रत्येक ग्राम, नगर और वन में भ्रमण करते हुए सहस्राम्रवन नामक उद्यान में प्राए । वहां सप्तपर्ण वृक्ष के नीचे तने की तरह अकम्प होकर प्रभु ने कायोत्सर्ग ध्यान किया । उस समय प्रभु श्रप्रमत्त संयत नामक गुणस्थान से अपूर्वकरण नामक भ्रष्टम गुणस्थान में प्राए । श्रोत अर्थ से शब्द की ओर आकर प्रभु ने नाना प्रकार के श्रुत विचार सम्पन्न शुक्ल ध्यान के प्रथम पद को प्राप्त किया । फिर जिससे समस्त जीवों पर समान परिणाम हो ऐसे श्रनिवृत्तिवादर नामक नवम गुणस्थान पर आरूढ़ हूए । तदुपरान्त लोभरूपी कषाय को सूक्ष्म खण्ड करने से सूक्ष्म सम्प्रराय नामक दशम गुणस्थान को प्राप्त हुए। इससे तीन लोक के समस्त जीवों के कर्म क्षय करने में समर्थ ऐसे वीर्य सम्पन्न प्रभु मोह नाश कर क्षीण मोह नामक द्वादश गुणस्थान को प्राप्त हुए । इस द्वादश गुणस्थान के अन्तिम समय प्रभु एकत्वश्रुत प्रविचार नामक शुक्ल ध्यान के द्वितीय पद को प्राप्त हुए । इस ध्यान में त्रिलोक के विषयों में स्थित अपने मन को इस प्रकार एक परमाणु में स्थिर कर लिया जिस प्रकार सर्प मन्त्र से समस्त शरीर में परिव्याप्त विष दंशित स्थान पर श्रा जाता है । ईधनों को हटा देने पर अल्प ईंधन की अग्नि जिस प्रकार स्वतः ही बुझ जाती है उसी प्रकार उनका मन भी सर्वथा निवृत्त हो गया । फिर ध्यानरूपी अग्नि प्रज्वलित होने से उस अग्नि में हिम की तरह उनके समस्त घाती कर्म क्षय हो गए और उन्होंने केवलज्ञान प्राप्त किया। उस दिन प्रभु के षष्ठ तप था । पौष मास की एकादशी थी श्रौर चन्द्र रोहिणी नक्षत्र में प्रवस्थित था । ( श्लोक ३२९-३४४) उस ज्ञान के उत्पन्न होने से तीन लोकों में स्थित तीन काल के समस्त भावों को हाथ पर रखी वस्तु की भांति प्रभु देखने लगे । जिस समय प्रभु को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ उसी समय प्रभु की प्रवज्ञा के भय से मानो कम्पित हुआ हो इस प्रकार सौधर्म देवलोक के
इन्द्र का आसन कम्पित हुन । जल की लिए मनुष्य जिस प्रकार जल में रस्सी
गम्भीरता को जानने के गिराता है उसी प्रकार