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की प्रतिध्वनि सुनी जाती है, जहां बन्दरों के कान काट लेने को भील बालक अधीर हो रहे हैं, जहां वृक्ष शाखामों के अग्रभागों के संघर्षण से अग्नि-स्फुलिंग निकल रहे हैं ऐसे पर्वत और महारण्य में और उसी भांति ग्राम और नगर में अजितनाथ स्वामी स्थिर चित्त से इच्छानुसार विचरण करने लगे। कभी नीचे देखने से चक्कर आ जाएँ ऐसे ऊँचे पर्वतों के उन शिखरों पर मानो द्वितीय शिखर ही हों इस प्रकार प्रभु कायोत्सर्ग ध्यान में अवस्थित हो जाते । कभी उछल-कूद करते कपि-समूह ने जिसकी अस्थि सन्धियों (कमरों) को तोड़ दिया है ऐसे महासमुद्र के तट पर वृक्ष की तरह स्थित हो जाते, कभी क्रीड़ारत उत्ताल हुए वेताल, पिशाच और प्रेतों से भरे और जहां चक्रवाती वायु से धूल उड़ रही है ऐसे श्मशान में जाकर कायोत्सर्ग ध्यान में लीन हो जाते । इनसे भी अधिक भयंकर स्थानों में जाकर प्रभु ध्यान लगाते । आर्य देशों में विचरण करते समय अक्षीण शक्ति सम्पन्न प्रभु अजितनाथ कभी चतुर्थ तप, कभी षप्ठ तप, कभी अष्टम तप करते तो कभी दशम, कभी द्वादश, कभी चतुर्दश, कभी षोडश, कभी अष्टादश तप करते । कभी मासिक तप, कभी द्विमासिक तप, कभी त्रैमासिक, कभी चतुर्थ मासिक तो कभी पंचमासिक, कभी षण्मासिक, सप्तमासिक तो कभी अष्टमासिक तप करते। मस्तक को तप्त कर देने वाली प्रखर ग्रीष्म ऋतु की धूप में देह की स्पृहा न रखने वाले प्रभु कभी भी वृक्ष की छाया नहीं चाहते। तुषारपात से जब वृक्ष-समूह जम जाते ऐसी हेमन्त ऋतु में भी प्रभु अधिक पित्तवाले पुरुष की तरह कभी भी धूप की इच्छा नहीं करते । वर्षाकाल में पवन वेग से भी अधिक दुःसह मूसलाधार वर्षा में भी प्रभु जलचर हस्ती की तरह जरा भी नहीं घबराते। पृथ्वी की तरह सबको सहने वाले पृथ्वी के तिलकरूप प्रभु इस भांति अनेक दुःसह परिषहों की तरह सहन करते। इस तरह विविध प्रकार के उग्र तप और विविध प्रकार के अभिग्रह-परिषहों को सहन करते हुए प्रभु ने बारह वर्षों तक प्रव्रजन किया।
(श्लोक ३१०-३२८) तदुपरान्त गेंडे की तरह पृथ्वी पर बिना बैठे गेंडे के सींगों की तरह अकेले विचरण करते हुए, सुमेरु पर्वत की तरह कम्पन रहित, सिंह की तरह निर्भय, पवन की तरह अप्रतिबद्धविहारी, सर्प की तरह एक दृष्टि सम्पन्न, अग्नि में जिस प्रकार सुवर्ण और