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कोई इसी जन्म में ही मुक्त हो जाता है, कोई द्वितीय जन्म में तो कोई तृतीय जन्म में या कोई कल्पातीत कल्प में उत्पन्न होता है । प्रभु को प्रदत्त भिक्षा को जो देखता है वह देवताओं की तरह नीरोगदेही होता है।
(श्लोक २८९-२९८) हस्ती जिस प्रकार जलपान कर सरोवर से बाहर आ जाता है उसी प्रकार प्रभु राजा ब्रह्मदत्त के घर से पारना कर बाहर पा गए। राजा ब्रह्मदत्त ने यह सोचकर कि भगवान् जहां खड़े थे उस स्थान को कोई उल्लंघन नहीं करे, वहां एक रत्नपीठ निर्मित करवा दिया। प्रभु वहीं है ऐसी भावना से राजा ब्रह्मदत्त पुष्पादि से उस पीठ की पूजा करने लगे। चन्दन, पुष्प और वस्त्रादि से जब तक वे पूजन नहीं कर लेते तब तक प्रभु अनाहार हैं ऐसा विचार कर वे भोजन ग्रहण नहीं करते।
(श्लोक २९९-३०२) पवन की तरह अप्रतिहत भ्रमणकारी भगवान् अजितनाथ प्रखण्ड इर्या-समिति का पालन करते हुए अन्यत्र विहार कर गए। राह में कई स्थानों पर खीरादि अन्न ग्रहण किया। कहीं सुन्दर विलेपन से उनके चरण-कमल चर्चित हुए। कहीं श्रावकों के वन्दना करने वाले बालक उनकी राह देखते। कहीं दर्शनों से अतृप्त लोग उनके पीछे-पीछे चलते । कहीं वे वस्त्र द्वारा उत्तारण मंगल करते । कहीं दही, दूर्वा और अक्षतादि से उन्हें अर्घ्य देते। कहीं उन्हें स्वघर ले जाने के लिए लोग उनका पथ रोक लेते। कहीं उनके पैरों पर गिरे हुए मनुष्यों से राह रुक जाती। कहीं श्रावक मस्तक के केशों से उनके पथ की धूलि परिष्कृत करते तो कहीं मुग्ध बुद्धि से उनका आदेश मांगते । इस प्रकार निर्ग्रन्थ, निर्मम और निःस्पृह प्रभु अपने संसर्ग से ग्राम और नगरों को तीर्थ तुल्य करते हुए विचरण करने लगे।
(श्लोक ३०३-३०९) जो स्थान उल्लुओं की धुत्कार से भयंकर है, जहां सियार चीत्कार कर रहे हैं, सर्प फुफकार रहे हैं, उन्मत्त बिलाव उत्क्रोश कर रहे हैं, जिनकी आवाजें बाघ से भी भयंकर है, जहां चमरु मृग क्रूर व्यवहार करते हैं, जो केशरी सिंह की गर्जना से प्रतिध्वनित है, जहां बड़े-बड़े हस्तियों द्वारा उखाड़े गए वृक्षों पर से उड़ते हुए कौए कांव-काँव कर रहे हैं, सिंहों की पूछ की फटकार से पाषाणमय भूमि भग्न हो रही है, जहां का पथ अष्टापद द्वारा चूर्ण हस्तियों की हड्डियों से भरा है, जहां शिकार को उत्सुक भीलों के धनुष टंकार