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का अनुगमन करने का व्रत ले लेते हैं उनके लिए दीक्षा ग्रहण ही उचित था । (श्लोक २५८ - २६६ ) तदुपरान्त जगत्पति को प्रदक्षिणा देकर प्ररणाम कर अच्युतादि इन्द्र इस प्रकार स्तुति करने लगे
हे प्रभु, आपने पूर्वकृत अभ्यास से वैराग्य को इस प्रकार ग्रहरण कर लिया है मानो इससे आपका जन्म जन्म से एकात्म भाव रहा हो । मोक्ष साधन में प्रवीण हे नाथ ! सुख के कारण इष्ट संयोगादि में भी जिस प्रकार आपका वैराग्य उज्ज्वल है उसी प्रकार दुःख के कारण इष्ट वियोगादि में भी वैसा ही वैराग्य है । हे प्रभु, आपने विवेकरूपी शान पर चढ़ाकर वैराग्य रूपी शस्त्र को इतना उज्ज्वल कर लिया है कि मोक्ष प्राप्ति में उसका पराक्रम अकुठित गति से व्यवहार में श्राता है । हे नाथ, आप जब देव और राजानों की लक्ष्मी का उपयोग कर रहे थे तब भी आपका श्रानन्द तो वैराग्य ही था काम भोगों से नित्य विरक्त आपका प्रौढ़ वैराग्य जब उत्पन्न हुआ तब आपने सोचा काम भोग अब समाप्त हो गया है अतः योग स्वीकार कर दीक्षा ग्रहण कर ली जाए ! जब आप दुःख में, सुख में, संसार में और मोक्ष में उदासीन भाव रखते हैं तो आपका वैराग्य अविच्छिन्न है । आपको किसमें वैराग्य नहीं है ? अन्य जीव तो दुःखगभित और मोहगभित वैराग्य से सम्पन्न होते हैं किन्तु आपके हृदय में तो एक मात्र ज्ञान गर्भित वैराग्य को ही स्थान मिला है सर्वदा उदासीन होने पर भी जगत के उपकारी समस्त वैराग्यों के परमात्मा, मैं आपको नमस्कार करता है ।
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आधार और शरण हे (श्लोक २६७-२७५)
इस प्रकार जगद्गुरु की स्तुति कर और उन्हें नमस्कार कर इन्द्र देवों सहित नंदीश्वर द्वीप गए और वहां अंजनादि पर्वतों पर शक्रादि इन्द्रों ने जन्माभिषेक कल्याणक की तरह शाश्वत अर्हत् प्रतिमानों का भ्रष्टाह्निका महोत्सव किया एवं फिर कब प्रभु के दर्शन होंगे ऐसा सोचते हुए देवताओं सहित निज निज आवास को चले गए । (श्लोक २७६-२७८) सगर राजा भी प्रभु को प्रणाम कर हाथ जोड़कर गद्गद् स्वर से इस भाँति विनती करने लगे
त्रिलोक रूपी पद्मिनी खण्ड को विकसित करने वाले सूर्य तुल्य हे जगद्गुरु अजितनाथ भगवान, प्रापकी जय हो ! हे नाथ,