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पुष्पमालाएं बनातीं। अनेक लोग उत्तम शय्या, आसन और बर्तन होते हए भी केले के पत्र पर सोते, बैठते और भोजन करते । बड़ेबड़े शाखायुक्त फलभार से प्रानत वेक्ष धरती का स्पर्श करते । आम्र मुकुल के स्वाद से उस वन की कोकिलाओं का मद कभी नहीं उतरता । अनार के स्वाद से उन्मत्त बने शुक पक्षी के कोलाहल से वह वन सर्वदां गुजरित रहता और वर्षा ऋतु के मेघ की तरह विस्तृत वृक्षीं से वह उद्यान छायायुक्त-सा लगता । ऐसे सुन्दर उद्यान में अजित स्वामी ने प्रवेश किया।
(श्लोक २४०-२५४) तदुपरान्त रथी जैसे रथ से उतरता है उसी भाँति संसार समद्र को पार करने के लिए जगद्गुरु भगवान अपनी शिविका रत्न से नीचे उतरे। फिर देवताओं के लिए भी दुर्लभ ऐसे तीन रत्नों को ग्रहण करने के इच्छुक प्रभु ने समस्त वस्त्र और रत्नालंकारों का परित्याग किया एवं इन्द्र प्रदत्त प्रदूषित देवदूष्य वस्त्र और उपाधि अर्थात् बाह्य साधन से धर्म का परिचय कराने के लिए अलौकिक उपकरण ग्रहण किया। (श्लोक २५५-२५७)
माघ शुक्ला नवमी का दिन था। उसदिन चन्द्रमा रोहिणी नक्षत्र में आया था। भगवान के दो दिन का व्रत था। सन्ध्या का समय था । सप्तच्छद वृक्ष के नीचे प्रभु ने अपने रागादि की तरह सिर के केशों को पंच मुष्ठि से उत्पाटित किया। सौधर्म ने उन केशों को अपने उत्तरीय वस्त्र के कोने में प्रसाद की तरह या संप्राप्त अर्थ की तरह ग्रहण किया और उसी समय ले जाकर क्षीर समुद्र में इस तरह बहा दिया जिस प्रकार नौका के यात्री समुद्र पूजा की वस्तुओं को जल में बहा देते हैं । वहाँ सुर-असुर और मनुष्य आनन्द में कोलाहल कर रहे थे। उन्हें इन्द्र ने शीघ्र लौटकर हस्त संकेत से शान्त कर दिया। फिर प्रभु सिद्धों को नमस्कार कर एवं सामायिक का उच्चारण कर मोक्ष मार्ग पर चलने के लिए वाहन की तरह चारित्र रूपी रथ पर आरूढ़ हुए। दीक्षा का सहोदर या एक साथ जन्म लिया हो ऐसा चतुर्थ मनपर्यव ज्ञान प्रभु को उत्पन्न हुआ। उस समय एक मुहूर्त के लिए नारकी जीवों को भी सुख मिला और तीनों लोक में एक विद्युत प्रकाश की भाँति पालोक व्याप्त हो गया। प्रभु के साथ अन्य एक हजार राजानों ने भी दीक्षा ग्रहण की। कारण जो स्वामी के चरणों