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प्रभु का ऐसा प्रादेश सुनकर सगरकुमार का मुख काला हो गया । बूंद-बूंद बरसाते मेघ की तरह उनकी आँखों से अश्रु गिरने लगे । वे करबद्ध होकर बोले- हे देव, मैंने ऐसी कौन-सी प्रभक्ति की है कि आप मुझे अपने से वियुक्त होने का आदेश दे रहे हैं ? यदि कोई अपराध हो भी गया हो तो आपका मुझसे प्रसन्न होना उचित नहीं है । क्योंकि पूज्य अपने प्रभक्त शिशु को दण्ड देते हैं उसका परित्याग नहीं करते । हे प्रभु, आकाश की तरह ऊँचा; किन्तु छायाहीन वृक्ष की तरह, आकाश में उत्पन्न; किन्तु वारिवर्षणहीन मेध की तरह, निर्भररहित वृहद् पर्वत की तरह, सुन्दर श्राकृति सम्पन्न ; किन्तु लावण्यहीन शरीर की तरह विकसित किन्तु सुगन्धहीन पुष्प की तरह आपको छोड़कर इस राज्य से मेरा क्या प्रयोजन है ? हे प्रभु, प्राप निर्मम निःस्पृह मुमुक्षु हैं फिर भी मैं आपके चरणों की सेवा का त्याग नहीं करूंगा, राज्य ग्रहरण करना तो बहुत दूर की बात है। मैं राज्य, पुत्र, कलत्र, मित्र श्रीर समस्त परिवार का परित्याग कर सकता हूँ; किन्तु आपके चरणों की सेवा का त्याग नहीं कर सकता । हे नाथ, जब श्राप राजा बने तब मैं युवराज बना । उसी प्रकार जब श्राप व्रतधारी बनेंगे तो मैं आपका शिष्य बनूँगा । दिन-रात गुरु चरणों की सेवा करने वाले शिष्य के लिए भिक्षा मांगना साम्राज्य के सुख से भी अधिक सुखकर है । अज्ञानी होने पर भी जिस प्रकार गोप-बालक गाय की पूंछ पकड़ कर नदी पार होता है उसी प्रकार में भी आपके चरण-कमलों का श्राश्रय लेकर संसार सागर का प्रतिक्रम करूंगा। मैं भी प्रापके साथ दीक्षा ग्रहण करूंगा, प्रापके साथ प्रव्रजन करूँगा । प्रापके साथ दुःसह परिषह सहन करूंगा और आपके साथ उपसर्ग सहूंगा; किन्तु यहां किसी भी प्रकार नहीं रहूंगा । इसलिए हे जगद्गुरु, श्राप प्रसन्न हों । ( श्लोक १४३ - १५५) इस प्रकार सेवा करने की जिसने प्रतिज्ञा ली है ऐसे सगर कुमार को अजितनाथ स्वामी अमृत समान मधुर स्वर में बोलेहे वत्स, संयम ग्रहण करने का तुम्हारा यह प्राग्रह उचित है; किन्तु अभी तुम्हारा भोग कर्मफल क्षय नहीं हुआ है । अतः तुम भी मेरी तरह भोगावली को भोगकर योग्य समय मोक्ष साधक व्रत ग्रहरण करना । हे युवराज, क्रम श्रागत इस राज्य को तुम स्वीकार करो. और मैं संयम रूपी साम्राज्य को ग्रहण करता हूँ । ( श्लोक १५६ - १५९ )