________________
(65
प्रभु की यह बात सुनकर सगरकुमार मन ही मन चिन्ता करने लगे-एक ओर प्रभु-वियोग का भय है, दूसरी ओर प्राज्ञाभंग का भय पीड़ा पहुंचा रहा है। स्वामी का विरह और उनकी प्राज्ञा पालन न करना मेरे लिए तो दोनों ही दुःखप्रद हैं। फिर भी विचार करने पर लगता है कि स्वामी की आज्ञा का पालन करना ही श्रेष्ठ है। अतः सगरकुमार गद्गद् कण्ठस्वर में बोले-प्रभो, आपकी आज्ञा शिरोधार्य है।
- (श्लोक १६०-१६२) ___ तब राजाओं में श्रेष्ठ अजित स्वामी महात्मा ने सगर के राज्याभिषेक के लिए तीर्थजलादि सामग्रियां लाने के लिए अनुचरों को आज्ञा दी। मानो छोटे-छोटे द्रह हों ऐसे कमल ढके कुम्भ स्नान करने योग्य तीर्थ जल से भरकर वे ले पाए। जिस प्रकार राजागरण उपहार लाते हैं उसी प्रकार श्रेष्ठीगण अभिषेक के लिए अन्य द्रव्यादि तत्काल ले आए। तदुपरान्त मानो मूत्तिमान प्रताप ही हों ऐसे राजा लोग राज्याभिषेक करने के लिए वहां पाए। अपने परामर्श से इन्द्र के मन्त्री को भी परास्त करने वाले मन्त्री, मानो दिकपाल ही हों ऐसे सेनापति, हर्ष से जिनका हृदय भरा हो ऐसे बन्धु-बांधव वहां पाए। मानो एक घर से पाए हों ऐसे हस्ती, अश्व आदि के अध्यक्ष तत्काल वहां पाए। उसी समय नाद में शिखर को भी गुजित कर देने वाले शङ्ख बजने लगे, मेघ की तरह मृदंग बजने लगे। दुदुभि और ढोल बजने लगे। ऐसा प्रतीत होने लगा मानो वे प्रतिध्वनि से समस्त दिशाओं को मंगल शिक्षा देने वाले अध्यापक हों। समुद्र तरंग की तरह झांझ बजने लगी। झालर की झन-झन चारों दिशाओं में सुनाई पड़ने लगी। कितने वाद्य फक देकर बजाए जा रहे थे, कितने हाथों से हिलाकर बजाए जा रहे थे। गन्धर्वगरण शुद्ध सुन्दर स्वर में गाना गा रहे थे । चारण, भाट, ब्राह्मण आदि आशीर्वाद दे रहे थे। इस भांति महोत्सव सहित अजित स्वामी की आज्ञा से कल्याणकारी पूर्वोक्त अधिकारीगणों ने विधि सहित राजा सगर का राज्याभिषेक किया फिर मांडलिक राजागरण, मंत्रीगण और सामंतों ने करबद्ध होकर उदीयमान सूर्य-से राजा सगर को प्रणाम किया। नगर के मुख्य-मुख्य अधिवासी हाथों में उत्तम उपहार लेकर राजा सगर के निकट पाए। उन्होंने नवीन चन्द्र-से राजा सगर के सम्मुख उपहारों को रखकर प्रणाम किया। प्रजा यही सोचकर प्रसन्न हुई कि स्वामी ने अपने प्रतिमूत्ति रूप सगर को