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कार्य करता है । मोह-बद्ध मानव जब मृत्युपथ पर अग्रसर होता है उस समय जिनके लिए वह पाप कर्म करता है वे कोई भी उसके सहायक नहीं बनते । वे सब यहीं रह जाते हैं । उनकी बात तो दूर यह शरीर भी उनके साथ नहीं जाता । हाय, फिर भी आत्मा इस कृतघ्न देह के लिए व्यर्थ ही पाप कर्म करते हैं । इस संसार में प्रारणी अकेला ही जन्मता है, अकेला ही मरता है एवं बद्ध कर्मफल को भी अकेला ही भोगता है । वह पाप कर्म कर जिस द्रव्य का उपार्जन करता है उसे उसके आत्मीय स्वजन मिलकर भोग करते हैं और वह अकेला नरक में जाकर पाप कर्म का दुःख भोगता है । दुःख रूपी दावानल से भयंकर संसार रूपी महावन में वह कर्म के वशीभूत होकर अकेला ही विचरण करता है । संसार सम्बन्धित दुःख से मुक्ति पाने पर जो सुख होता है उस सुख को भी वह अकेला ही भोगता है । उसमें भी कोई उसका हिस्सेदार नहीं होता । समुद्र में गिरा प्राणी स्व हाथ-पाँव, बुद्धि और मन को काम में न लाए तो जिस प्रकार वह समुद्र में डूब जाता है और जो काम में लाता है वह पार हो जाता है । उसी प्रकार धन देहादि परिग्रह से विमुख होकर जो उनका सद् व्यवहार करता है और निज श्रात्मरूप में लीन होता है वही संसार समुद्र को पार करता है । ( श्लोक १२१ - १९३७)
संसार से जिसका मन उदास हो गया है ऐसे अजितनाथ प्रभु को इस भाँति चिन्ता करते देखकर सारश्वतादि लोकान्तिक देव उनके निकट श्राकर कहने लगे - हे भगवन्, प्राप स्वयंबुद्ध हैं । अतः हम आपको बोध देने में समर्थ नहीं हैं । फिर भी आपसे यही निवेदन करना चाहते हैं कि अब आप धर्म तीर्थ की प्रवर्तना करें ।
( श्लोक १३८ - १३९) वन्दना कर वे इस
इस प्रकार विनती और प्रभु चरणों में प्रकार ब्रह्मलोक को लौट गए जिस प्रकार सन्ध्या को पक्षी नीड़ों में लौट जाते हैं | अपने विचारों के अनुकूल देवताओंों के वचन सुनकर उनका वैराग्य इस प्रकार बढ़ने लगा जैसे पूर्वी हवा से मेघ बढ़ने लगता है । (श्लोक १४०-१४१ )
उन्होंने उसी क्षण सगर कुमार को बुलवाया और बोलेमेरी इच्छा अब इस संसार सागर को उत्तीर्ण करने की है । अतः तुम यह राज्य भार ग्रहण करो । ( श्लोक १४२ )